कविता : मैं चुप हूँ.......

बुधवार, 27 मई 2009

यह कविता क्यों??
पंजाब और समीपवर्ती राज्यों के मौजूदा हालात से सारा देश वाकिफ़ है। ये हालात हमारे लिए नए नहीं हैं, आज यहाँ तो कल वहाँ वाली बात हो गए हैं। खेद है कि आए दिन इंसानियत को शर्मसार करने वाली ऐसी घटनाएं (दुर्घटनाएं) होती रहती है। मगर एक आम आदमी के मन में इस सब को लेकर क्या चलता है, यही कहने की एक छोटी सी कोशिश.......

मैं चुप हूँ,
ख़ामोश हूँ,
कुछ कहना नहीं चाहता,
मेरी यह चुप्पी,
इस बात को लेकर नहीं,
कि मुझे दीन-दुनिया से कोई सरोकार नहीं,
या फिर,
मैं हूँ बेखबर आस-पास के हालातों से,
बल्कि इसलिए क्योंकि मैं,
कुढा हुआ हूँ इस सब से,
यह व्यर्थ के दंगे,
हिंसा आगजनी,
क्या है ये सब,
क्यूँ हम अपनी इंसानियत,
अपने उसूल भूल जाते हैं,
वो उसूल जो हमें सिखाते हैं,
अच्छे काम करना,
सभी से प्रेम करना,
सत्य, अहिंसा की राह पर चलना.
बचपन से यही सब सीखते आते हैं,
मगर एक पल के आवेश, जूनून में
इन्हें कहीं दूर छोड़ आते हैं,
उतर आते हैं हैवानियत पर, दरिंदगी पर,
कहीं बस जलाई, कहीं घर-बार,
कहीं मारा-पीटा, कहीं तोड़ा-फोड़ा,
यही सब तो करते हैं,
पता नहीं क्यूँ.......

मैं चुप हूँ,
क्योंकि मैं डरा हुआ हूँ सहमा हुआ हूँ,
अपने घर में दुबका हुआ हूँ,
बाहर सड़कों पर कुछ साये,
हाथों में नंगी तलवारें लिए,
घूम रहे हैं इधर-उधर,
सोचता हूँ,
जिनके नाम पर यह सब कर रहे हैं,
क्या उन्होनें कहा ऐसा करने को,
कभी नहीं,
उन्होनें तो यह सपने में भी,
नहीं सोचा होगा,
कितनी दुखेगी उनकी आत्मा,
जब उन्हें यह ज्ञात होगा,
और क्या हासिल कर पायेंगे हम,
इस सब से,
माना जो हुआ वो गलत था,
मगर हम क्या सही कर रहे हैं??
हिंसा का बदला हिंसा,
घृणा का बदला घृणा,
खून का बदला खून,
ये तो हमें किसी ने नहीं सिखाया था,
तो क्यूँ ये सब करके,
बद हालातों को बदतर बना रहे हैं,
अपना, अपने समाज का, अपने देश का,
नुक्सान कर रहे हैं।

मैं चुप हूँ,
क्योंकि आज ये पता चला कि,
आम आदमी की चुप्पी,
कितनी दर्दभरी,
कितनी बेबस,
और लाचार होती है।
कब समझेगा कोई इस चुप्पी को,
इसके पीछे छुपे दर्द को,
कब रुकेगा ये अमानवीय सिलसिला,
आज यहाँ तो कल वहाँ पर का,
कब ख़त्म होगी,
ये नफरत की जंग,
कब लायक होंगे हम,
इंसान कहलाने के।

नन्हीं कली जो खिल न सकी

सोमवार, 18 मई 2009

बात उस समय की है जब मैं शायद छठी या सातवीं कक्षा में पढ़ता था, ठीक से याद भी नहीं शायद इसलिए क्योंकि उस बात को गुज़रे काफ़ी वक़्त हो चुका है या फ़िर मैंने उस घटना के सामने समय के आंकलन को प्राथमिकता देना उचित नहीं समझा। कुल मिलाकर बात काफी पुरानी है लेकिन आज भी जब याद करता हूँ तो आँखें नम हो उठती हैं। मन के भीतर क़ैद भावनाओं का एक सैलाब उमड़ पड़ता है। बात है ही कुछ ऐसी।

गर्मियों की छुट्टियों के दिन थे और हम सभी अपने गाँव गए हुए थे। हर साल का यही क्रम था कि गर्मियों की छुट्टियां शुरू होते ही गाँव जाने की तैयारियां होने लगती थी। सारी गर्मियां वहीं पर बिताते थे। खूब मज़ा आता था गाँव के माहौल में। वो खेत-खलिहान, घर-आँगन, गाय-भैंस-भेड़-बकरी इत्यादि जानवर, सीधे-सादे भोले-भाले चेहरे मन मोह लेते थे। एक अलग ही खुशबू थी वहाँ की मिट्टी में, एक अनूठी ताज़गी थी वहाँ की हवाओं में, एक अलग ही ठंडक थी वहाँ के पानी में, एक जादू का सा सम्मोहन था वहाँ की बोली में, कुल मिलाकर वहाँ की बात ही कुछ अलग थी। हम सभी छोटे थे, सो सारा दिन खेलने-कूदने में निकल जाता था। मेरी छोटी बहन के साथ खेलने के लिए पड़ोस की एक लड़की आती थी। कोई ५-६ साल की रही होगी वो लड़की। उसकी और मेरी बहन की अच्छी मित्रता हो गयी थी। दोनों मिलकर कूड़ी-बाड़ी ("घर-घर" खेल का गढ़वाली नाम) खेलते थे।

इसी तरह हँसी-खुशी गर्मियों के दिन बीतते जा रहे थे कि तभी अचानक उस लड़की ने खेलने आना बंद कर दिया। पूछने पर पता चला कि लड़की की तबीयत खराब चल रही थी। हमने उसे देखने जाने की जिद्द की मगर घर के बुजुर्ग (दादा-दादी) हमें उस लड़की के घर नहीं जाने दे रहे थे। अपने अन्य मित्रों से पता किया तो उन्होंने बताया कि उस लड़की पर भूत चिपक गया है इसलिए बच्चों का उसके पास जाना मना है। खैर उस समय तो यह बात हमारी समझ से परे थी। यह भी पता चला कि तरह-तरह के अंधविश्वास, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र इत्यादि अपनाए जा रहे थे, लड़की को ठीक करने के लिए। मेरे पापा को जब इस बात का पता चला तो वे तुंरत उसे देखने गए और उन्होंने वास्तविक स्तिथि स्पष्ट की। दरअसल वो लड़की हैजा से पीड़ित थी। उलटी-दस्त रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। पापा ने उसके घरवालों को उसे तत्काल अस्पताल ले जाने को कहा परन्तु किसी ने उनकी एक ना मानी। वे भी बिना उसके घरवालों की मर्जी के क्या कर सकते थे। ऐसा होते-होते दो दिन हो गए। परन्तु पापा ने हार ना मानी, वे लगातार उन्हें समझाते रहे तथा कई और लोगों को भी इस बारे में बताया।

इसी बीच गाँव के कई प्रबुद्ध लोगों ने इस बात पर खेद व्यक्त किया और स्वयं उनके घर जाकर उन्हें समझाया। लेकिन अब तक लड़की की हालत काफी बिगड़ चुकी थी। वह सूखकर लगभग काँटा हो गयी थी। खैर वे मान गए और पापा ने तुंरत लड़की को गोद में उठाया और सभी को साथ लेकर अस्पताल की ओर चल पड़े। अब हमें इस डर से साथ में नहीं जाने दिया गया कि कहीं हम भी बीमार ना हो जाएं। लेकिन हाय री किस्मत, अभी सब गाँव की सीमा तक ही पहुंचे थे कि वह नन्हीं जान इस संसार से विदा हो गयी। अपने परिजनों की ऐसी अनदेखी से उसका जीवन के प्रति मोह भंग हो गया था, और साहस जवाब दे चुका था। केवल शरीर का पिंजरा शेष रह रह गया था, आत्मा का पंछी उड़ चुका था। देखते ही देखते सारा गाँव मातम में डूब गया। हम भी अपना एक साथी बिछड़ जाने से सकते में थे।

आज भी जब इस बात का ज़िक्र आता है, मेरे पापा के कानों में उसके वे शब्द "ए ताऊ! मितै बचा" (ताऊ जी, मुझे बचाओ) गूंजते हैं। बहुत ही कष्टदायक होता है किसी अपने का बिछड़ जाना। यह बात तब और भी दुखदायी होती है जब हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते हैं उसे बचाने के लिए या फ़िर हमें करने ही नहीं दिया जाता। चूंकि उस वक़्त हम काफी छोटे थे और नासमझ भी, सो इस घटना (असल में दुर्घटना) के पीछे छिपी हकीक़त से अनजान थे। मगर अब जब भी यह बात याद आती है तो सोचता हूँ कि क्या वो लड़की अंधविश्वासों कि सूली पर चढ़ गयी थी या फ़िर उसे अपने लड़की होने की कीमत चुकानी पड़ी। क्यों नहीं उसे समय रहते अस्पताल ले जाया गया?? या फ़िर ले जाने की आवश्यकता ही नहीं महसूस की गयी। क्या कसूर था उस नन्हीं कली, उस मासूम जान का?? आख़िर क्यों उसके जीवन का मूल्य नहीं समझा गया?? ये सब सवाल आपके लिए भी छोडे जा रहा हूँ, एक बार सोचियेगा जरूर।

यह आलेख क्यों?
आदरणीया घुघूतीबासूती जी के ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख बच्ची को भूल गए ! (इतना क्यों कुढ़ती हूँ ? भाग २) पढ़कर मुझे अनायास ही यह दुखद प्रसंग स्मरण हो आया. शायद यह आलेख पढ़कर किसी की तो आँखें खुलें, इसी भावना से ओत-प्रोत होकर लिखा यह आलेख।

शेष फ़िर!!!

कविता : रुक जाना नहीं तू कहीं हार के...

बुधवार, 13 मई 2009

कभी-कभी
जब मैं सोचता हूँ,
अकेले में,
उदासी में,
तो ना जाने क्यूँ
एक चिंगारी
भड़क जाती है जहन में,
एक धुआं सा उठता है,
एक आग जो
दबी पड़ी थी किसी कोने में,
या लगभग बुझ चुकी थी
सुलगने लगती है।

मेरा अन्तर्मन
शायद कुछ कहने की
कोशिश करता है
मुझ जैसे से,
जिसने अपने कानों को
सिर्फ़ बाहर की दुनिया के लिए
खोल रखा है,
और ना चाहते हुए भी
अन्दर की आवाज़ को
दबा रखा है।

जो अनजान है
अपने भीतर के सच से,
अपनी असली पहचान से,
नाम तो याद है जिसे
अपना मगर,
नाम के मक़सद से है
नावाकिफ़,
खो गया है जो
दुनिया की भीड़ में,
भटक गया है
सफ़र में कहीं,
भूल गया है
मंजिल का ठिकाना।

ज़िन्दगी जिंदादिली का नाम है,
मगर जी रहा है
मुर्दादिल बनकर,
खुश नज़र आता है सभी को,
लेकिन खुशी से कोसों दूर,
डूब चुका है जो
स्याह रातों में,
हताशा-निराशा के भंवर में।

तभी ख़याल आता है
ज़िन्दगी के उन हसीं लम्हातों का,
वो पल जो यादगार गुज़रे,
वो यादें वो बातें,
तमन्नाओं के रेले,
बहारों के मेले,
और एक पल में ही
निराशा के बादल छंट जाते हैं,
जगमगाता है आशा का सूरज,
ख़त्म हो जाती है
नकारात्मक चिंतन के पत्थर से
मन के तालाब में
पैदा हुई हलचल,
आ जाती है स्थिरता,
मिलती है एक नई प्रेरणा
जीने की,
जिंदादिली की।

एहसास होता है
इंसान की इस फ़ितरत का
जो ज़रा सा ग़म मिलने पर
उसे मायूस कर देती है,
राई जितने ग़म को
पहाड़ कर देती है,
लगता है तब अपना ही ग़म
उसे दुनिया में सबसे बड़ा,
जबकि जहाँ में है कहीं ज्यादा दर्द
कहीं ज्यादा पीड़ा,
और सुनाई देती है अंदर की आवाज़,
जो कह रही है
तुम अपने आप में
पूरे हो
पक्के हो।

यह कविता क्यों?
प्रत्येक व्यक्ति की कुछ अपनी कमजोरियाँ होती हैं जो उसे अक्सर नकारात्मक चिंतन की ओर उन्मुख होने पर विवश कर देती हैं। हर इंसान ज़िन्दगी में कभी ना कभी इस मोड़ से ज़रूर गुजरता है जब उसे अपना जीवन बेमानी लगने लगता है, चारों ओर से हताशा और निराशा उसे घेर लेती है। मगर जीवन तो संघर्ष का दूसरा नाम है इसलिए उसे अपनी ज़िन्दगी के हसीन लम्हों को याद करना चाहिए और उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ना चाहिए।

शेष फ़िर!!!

धन्य है कबूतरी का जड़-प्रेम

रविवार, 10 मई 2009

आदरणीय समीर लाल जी के ब्लॉग "उड़न तश्तरी" पर प्रकाशित आलेख " परदेशी, अब बस कर..." को पढ़कर लगा मेरी अपनी कहानी है। क्यूँ आपको नहीं लगा क्या??? मैं दावे से कह सकता हूँ ९० प्रतिशत ऐसे लोगों ने, जो अपनी जड़ों से दूर हैं, उस आलेख को पढ़कर कहीं न कहीं मस्तिष्क में एक रेखाचित्र बनाया होगा जिसमें स्वयं को केंद्रित करके उन्होंने यादों का वह कारवां रवाना किया होगा जो उन्हें उनकी जड़ों और उनमें बीते दिनों की ओर ले गया होगा। मुझे भी अपनी जड़ों से कटने का ग़म तड़पा गया। असल में अपनी धरती, अपनी माटी की खुशबू, अपनी बोली, अपना पहनावा (मेरे हिसाब से ये सब तत्त्व मिलकर जड़ का निर्माण करते हैं) हर किसी के अंदर रचा-बसा होता है, और सारी दुनिया एक तरफ़ और अपनी जड़ से जुड़े होने का एहसास एक तरफ़। लेकिन जिस प्रकार अपनी जड़ों से जुड़े होने की खुशी अतुलनीय है, ठीक उसी प्रकार उनसे दूर होने का ग़म भी।

हमारी जड़ें लगभग-लगभग पेड़-पौधों की जड़ों जैसी ही होती हैं। जिस तरह पेड़-पौधों की जड़ें न दिखाई देते हुए भी उनका अभिन्न एवं महत्त्वपूर्ण अंग होती हैं, उसी तरह इंसान की जड़ें भी हमेशा उसके अंदर ही विद्यमान होती हैं। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि पेड़-पौधे चाहे कितनी भी आसमान की बुलंदियों को क्यों न छू लें, वे सदैव अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं। इसे एक तरह से आप उनके लिए प्रकृति का वरदान कह सकते हैं। लेकिन मनुष्य शायद प्रकृति के इस वरदान से वंचित रह गया। इस निर्दय संसार में कभी पेट की खातिर तो कभी किन्हीं और कारणों से उसे अपनी जड़ों से दूर होना पड़ता है। और यकीन मानिये ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो एकाएक अपनी जड़ों से दूर होने पर इस चीज़ का एहसास कर पाते हैं। अधिकतर या तो सुख-सुविधाओं की चकाचौंध में खो जाते हैं या फ़िर कुछ इतने मजबूर होते हैं कि उनके पास ये सब सोचने का वक्त ही नहीं होता। लेकिन इस दुनिया की भागदौड़ में इंसान कितना भी क्यों न भाग ले, देर-सबेर उसे अपनी जड़ें ही याद आती हैं।

अपनी जड़ों से प्यार करना सिर्फ़ इंसान की ही फ़ितरत में नहीं, बल्कि भोले-भाले पशु-पक्षी भी अपनी जड़ों के प्रति उतनी ही संवेदनशीलता रखते हैं जितना कि एक मनुष्य (बल्कि कहीं अधिक)। अभी कुछ दिन पहले की ही बात बताता हूँ। जिस कमरे में रहता हूँ वह मकान की दूसरी मंजिल पर है और कूलर खिड़की पर बाहर की ओर लगा हुआ है (जैसा कि आजकल के अधिकाँश मकानों में होता है)। पिछले साल सर्दियों का मौसम शुरू होने पर जब कूलर का इस्तेमाल बंद कर दिया गया था तो उसमें एक कबूतरी आकर बस गयी थी। सर्दियां ख़त्म होते-होते एक बार तो उसके बच्चे बड़े होकर उड़ गए और तभी उसने दुबारा अंडे दे दिए। हम भी इसी प्रतीक्षा में थे कि ये अंडे भी बच्चों में तब्दील होकर उड़ जाएँ तो कूलर की सफाई की जाए ताकि गर्मियां आने पर इस्तेमाल में आ सके। अब गर्मियों का मौसम आने लगा था। शुरूआती दिन तो यूँ ही बीत गए। थोड़ी गर्मी बढने पर पंखे से काम चला लिया और इंतज़ार चलता रहा। ऐसा करते-करते मई का महीना आ पहुँचा। अब मई के महीने की गर्मी तो आप सबको पता ही है। इतनी भीषण गर्मी में जब पंखा भी जवाब दे गया तो साथ में रहने वाले मित्रों ने सुझाव दिया कि क्यों ना कबूतरी का घोंसला कूलर के ऊपर बना दिया जाए। इस तरह हम भी गर्मी से बच जायेंगे और उसका घर भी सलामत रहेगा। सभी की सलाह से कबूतरी के लिए इस तरह का घरनुमा घोंसला बनाया गया जिसमें उसका गर्मी से भी बचाव हो सके और वह आराम से रह भी सके। उसके अंडे भी हिफाज़त से उसमें रख दिए गए।

कबूतरी पहले दिन तो उस घोंसले में रह गयी, परन्तु उसका जड़-प्रेम तो देखिये। हम सब रात को कूलर चलाकर सोये थे। सुबह के करीब ६ बजे कुछ आवाज़ सी हुई। उठकर देखा तो मेरे मित्र भागे-भागे गए कूलर को बंद करने। कूलर की तरफ़ देखा तो सारा माजरा समझ में आ गया। कूलर में घुसने की कोशिश में कबूतरी थोड़ी सी घायल हो गई थी। एक तरफ़ तो हमें अफ़सोस हुआ कि हमारी वजह से वह घायल हो गई, मगर दूसरी ओर हम उसका अपने जड़ (घर) के प्रति प्रेम देखकर आश्चर्यचकित थे। सभी उस कबूतरी को देखने गए। हालत ज्यादा नाज़ुक नहीं थी। उसे पानी पिलाया गया और थोड़ी देर बाद वह ठीक होकर उड़ गई। इसी बीच मेरे मित्र ने बताया कि वह कबूतरी दिन भर कूलर में घुसने का प्रयास कर रही थी परन्तु उन्हें देखकर वह डरकर उड़ जाती थी। रात को सभी को सोता देखकर उसने उपयुक्त अवसर पाया होगा और बिना कूलर के चलते होने की परवाह किए बिना वह अपने पुराने घर में जाने लगी। धन्य है कबूतरी का अपने नीड़, अपनी जड़ के प्रति प्रेम जो उसे उस नए एवं आरामदायक घर में भी न बाँध सका। इस प्रयास में उसकी जान भी जा सकती थी परन्तु वह कहाँ अपनी जान की परवाह करने वाली थी उसे तो उसका नीड़ ही प्यारा था।

जब पशु-पक्षी भी अपनी जड़ों के प्रति इतना प्रेम रख सकते हैं तो फ़िर बुद्धिजीवी कहलाने वाला मनुष्य क्यों नहीं??? जो अपनी जड़ों के प्रति असंवेदनशील हैं उन्हें कबूतरी से कुछ न कुछ सीख अवश्य लेनी चाहिए। मेरे विचार में जड़ के प्रति प्रेम भी कई तरह का होता है। जब आप अपने शहर से बाहर जाते हैं तो शहर की याद आती है, राज्य से बाहर जाते हैं तो राज्य की और देश छोड़कर जाने पर देश की। बात यहाँ पर शहर, राज्य या देश की नहीं हो रही है, बात है जड़ की और जड़-प्रेम की। आप जड़ को किसी भी रूप में देखते हों मगर उससे प्रेम करने वाले होने चाहिए।

इसी बात पर किसी कवि ने क्या खूब कहा है:
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश (जड़) का प्यार नहीं॥

शेष फ़िर!!!

मत चूको चौहान

मंगलवार, 5 मई 2009

परसों रविवार था। कुछ फ़ुर्सत के लम्हें। सोचा क्यों न रेडियो सुन लिया जाय। परन्तु यह क्या?? रेडियो चालू करते ही राजनीतिक दलों के विज्ञापनों की बौछार शुरू। एक बार शुरू हुई नहीं कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लिया। वही पुराने घिसे-पिटे सन्देश, हमारी पार्टी को ही वोट दें, हमारी पार्टी सबसे अच्छी, हमारी पार्टी आपके विकास में भागीदार बनेगी, हमारी पार्टी ने इस वर्ग के लिए ये किया, उस वर्ग के लिए वो किया इत्यादि-इत्यादि। अन्य देशों का तो पता नहीं, लेकिन भारत में चुनावों को एक मौसम, एक त्यौहार, एक विशिष्ट आयोजन की तरह लिया जाता है। पूरा देश अपने सारे काम-धंधे छोड़कर लग जाता है चुनावों की खबर-पड़ताल में। इसी बहाने समाचार चैनल अच्छी-ख़ासी कमाई कर जाते हैं, गरमा-गर्म खबरों के तड़के दर्शकों को खूब भाते हैं। क्या करें अपनी तो पैदाइश ही ऐसे देश में हुई है जिसे "मसालों" के लिए जाना जाता है। इसलिए यहाँ की आदत में शुमार है मसालेदार चीज़ों का सेवन। इसी बात का फायदा समाचार चैनल उठाते हैं और साथ ही राजनीतिक दल भी। विज्ञापन तो ऐसे-ऐसे की क्या कहने। आम आदमी का सिर चकरा जाए, पूर्णतः मतिहरण करने वाले।

चुनावों का दौर शुरू होते ही एक सिलसिला चल पड़ता है आरोप-प्रत्यारोपों का। एक ओर जहाँ सत्तारूढ़ दल अपने विकास कार्यों का लेखा-जोखा बड़ी शान के साथ सुनाता है, वहीँ दूसरी ओर विपक्षी दल कहाँ चुप बैठने वाले होते हैं। उनके पास तो सत्तारूढ़ दल की खामियों के पुलिंदे पड़े होते हैं जिसे सुनाकर वो आम जनता को अपने पक्ष में करने की सोचते हैं। सभी दल विकास की बातें करते हुए नज़र आते हैं। विकास का मुद्दा ही तो उनका प्रमुख चुनावी हथियार है जिसका अंधाधुंध प्रयोग वे देश की जनता पर सालों से करते आ रहे हैं। अन्य हथियारों में शामिल हैं बेरोज़गारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा और नवीनतम मुद्दा आतंकवाद नेताओं के लम्बे-चौड़े भाषण और जन-सभाएं शुरू हो जाती हैं। जातीय समीकरण बनाए जाते हैं।

वाकई गज़ब की है यह कुर्सी की दौड़ और उससे भी दिलचस्प है इसके लिए खींचातानी। सभी दल पूरी तैयारी के साथ उतरते हैं इस महासमर में। कोई भी यह स्वर्णिम अवसर गवाँना नहीं चाहता। हर दल के पास अपनी विशेष रणनीति होती है अन्य दलों को परास्त करने की, अपने-अपने महारथी एवं धुरंधर होते हैं। पता नहीं कौन-कौन से हथकंडे अपनाए जाते हैं, क्या-क्या दाव-पेंच लगाए जाते हैं। वायदों और घोषणाओं की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार होती है। प्रचारक दिन रात इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं किस तरह अधिक से अधिक क्षेत्रों और वर्गों तक पहुँच बनाई जाय। साम-दाम-दंड-भेद सभी नीतियों का प्रयोग किया जाता है। "नोट के बदले वोट" और "भाषण के बदले राशन" भी अपनाए जाते हैं।

अतः विनम्र निवेदन है सभी मतदाताओं से कि वे राजनीतिक दलों के लुभावने वायदों और विज्ञापनों पर ध्यान न दें अपितु अपने मन, बुद्धि, विवेक से काम लें। वोट किसी भी पार्टी को दें (यह आपके निर्णय पर निर्भर करता है) परन्तु पहले यह सुनिश्चित कर लें कि वह पार्टी आपका जनाधार पाने के लायक है भी या नहीं और वह आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतर सकेगी या नहीं। आपकी जागरूकता ही इस सम्बन्ध में आपकी मददगार है। और यही वो समय है जब आप अपनी पहचान दर्ज़ करवा सकते हैं, देश का भविष्य तय कर सकते हैं। अतः सावधान, यह महत्त्वपूर्ण अवसर चूकने पाए।

अंत में.......
हे भारत के आम जन,
हे भारत के मतदाता।
दो जनाधार उसको जो हो,
जन-गण-मन का अधिनायक,
भारत भाग्य विधाता॥

शेष फ़िर!!!

श्रेणी: ,

हम सब मजदूर हैं

शनिवार, 2 मई 2009

हिन्दी ब्लॉग लेखन की दुनिया में प्रवेश का यह पहला हफ्ता काफी व्यस्त और रोमांचक रहा। एक ओर जहाँ अच्छे-अच्छे ब्लोग्स को ढूंढकर पढ़ने में समय का पता ही नहीं चला, वहीं दूसरी ओर अपने पहले ही लेख पर मिली इतनी ढ़ेर सारी टिप्पणियों को देखकर हौसला आसमान छूने लगा। कई नए मित्रों तथा शुभचिंतकों से परिचय बना, कई महानुभावों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, सभी को धन्यवाद लगा कि वाकई में हिन्दी में ब्लॉग लिखने का फैसला सही था, बस आपकी सहमति कि मुहर चाहिए थी सो मिल गयी। अब मुझे कौन रोक सकता था। इसी बीच मेरा नया नामकरण हुआ। अपने कार्यस्थल (ऑफिस) पर मित्रों एवं सहकर्मियों द्वारा "हमसफ़र यादों का" के नाम से बुलाया जाने लगा। सुनकर बहुत ख़ुशी हुई। तभी गुरुवार को मतदान का एक और चरण संपन्न हो गया।

अगला दिन यानी शुक्रवार का रहा "मजदूर दिवस" के नाम (हम सब जानते हैं कि हर साल १ मई का दिन "मजदूर दिवस"/"श्रम दिवस"/"मई दिवस"/"लेबर डे" के नाम से मनाया जाता है)। सबसे पहले तो अपने कार्यस्थल पर सभी सहकर्मियों को मजदूर दिवस की बधाईयाँ दीं। कुछ ने ख़ुशी से कुबूल की तो कुछ ने अजीब से चेहरे बनाकर कहते हुए कि भाई हम ही मिले थे "मजदूर दिवस" की शुभकामनायें देने के लिए !! अब सवाल यह उठता है आखिर मजदूर कौन?? सड़क पर पत्थर तोड़ता हुआ आदमी या बोझा ढोने वाला कूली, रिक्शा चलाने वाला या सड़कों पर रेहड़ी लगाने वाला। ऐसे अनेकों उदाहरण हो सकते हैं मजदूरों के जो हमारे समाज ने परिभाषित किये हैं। परन्तु वास्तव में हम सब मजदूर हैं चाहे हम कितने भी ऊँचे पद पर हों या हमारा सामाजिक स्तर कितना ही अच्छा क्यों हो। हमारा समाज जबकि एक मजदूर को हीन भावना से देखता है कोई भी अपने आप को मजदूर कहलाना पसंद नहीं करेगा लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि यह समाज मजदूरों के बल पर ही टिका है। आप उपरोक्त उदाहरणों से ही अंदाजा लगा सकते हैं कि समाज की क्या दशा होगी इन सबके बगैर।

हम सब मजदूर कैसे हैं?? तो बताना चाहूंगा कि ऊपर "मजदूर दिवस" के लिए एक और शब्द प्रयुक्त हुआ है : "श्रम दिवस" और सही मायनों में हमारा मजदूर होना यही शब्द साबित करता है। "श्रम दिवस" उन सभी लोगों का दिवस है जो किसी न किसी रूप में श्रम, परिश्रम या मेहनत करते हैं। हर कोई किसी न किसी रूप में श्रम अवश्य करता है और जो नहीं करते वो आलसी, निकम्मा, बेकार, निठल्ला, अनाज के दुश्मन आदि-आदि कई उपनामों से जाने जाते है। अब बताइए हुए न हम सभी श्रमिक यानी मजदूर या फिर आप उन लोगों में से हैं जो श्रम नहीं करते। सोच लीजिये पसंद आपकी है कि आप श्रमिक यानी मजदूर कहलाना पसंद करेंगे या फिर.......

अंत में इन पंक्तियों के साथ अपनी वाणी को विराम देता हूँ (हम सभी श्रमिकों के नाम)
कुछ भी बनो तुम,
पर श्रमिक की अपनी पहचान खोना।
तुम श्रमिक महान,
तुम्हारी मेहनत से मिट्टी भी सोना।।

शेष फ़िर!!!