दिल-ए-नादाँ की उदासी

सोमवार, 29 जून 2009

इस हफ्ते अति व्यस्तता के चलते ब्लोग्स को ज्यादा समय नहीं दे पाया और आने वाला सप्ताह भी कुछ ऐसे ही जाने के संकेत हैं, इस वजह से माफ़ी चाहूंगा। बारिश ने जब देश के कई इलाकों में अपनी कृपा दृष्टि के परिणामस्वरुप जल-वृष्टि की है, चंडीगढ़ अभी भी सूखे की मार झेल रहा है। मौसम से लेकर मिज़ाज़ तक में कुछ भी नया-ताज़ा न होने की सूरत में इस बार एक पुराना गीत ही पेश-ए-खिदमत है, जो यहाँ भी छप चुका है .......

दिल-ए-नादाँ जब कभी भी उदास होता है,
एक अजनबी सा शख्स मेरे पास होता है;
ज़िंदगी की इन तेज़ रफ़्तार घड़ियों में,
वो लम्हा वो पल कुछ ख़ास होता है.

सुबह का सूरज दिन भर तपकर,
शाम तक बूढा हो जाता है;
दरिया में डूबते डूबते अपनी छाप,
मेरे कच्चे मन पर छोड़ जाता है.
उसके इस चलन में मुझे,
अपनी जलन का एहसास होता है.
दिल-ए-नादाँ ....................

रात की रानी अपनी बाहों के आगोश में,
हौले से जग को भर लेती है;
नींदें मेरी उड़ जाती हैं पंख लगाकर,
सपनों की आहट ही कहाँ होती है.
मैं और मेरी तन्हाई के इस मंज़र का,
खामोश गवाह केवल आकाश होता है.
दिल-ए-नादाँ .......................

ज़िंदगी दर्द भरी दवा लगने लगी है,
कड़वी बद्दुआ भी अब दुआ लगने लगी है;
समंदर भी शर्म से सर झुका लेता है,
अश्कों की धारा अब दरिया लगने लगी है.
बहारों के मौसम में भी जाने क्यों,
पतझड़ का सा आभास होता है.
दिल-ए-नादाँ ..................

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ब्लॉगर के मन का संदेश : लक्ष्य-प्राप्ति कैसे ??

बुधवार, 24 जून 2009

मेहरबान, कदरदान, साहिबान....... आज तो अपना ब्लॉग भी कुछ चमक रहा है....... कैसे ?? ज़रा दायीं तरफ़ खोजबीन बक्से के ठीक नीचे देखिये....... मिला कुछ ?? जी हाँ, ये सब आपके प्यार-दुलार, स्नेह एवं आशीष का नतीजा है जो इतने कम समय में इस मुकाम तक पहुंचा हूँ मगर ये कोई मंज़िल नहीं महज़ एक सफ़र की शुरुआत है, ऐसा मेरा मानना है. यादों के इस हमसफ़र का यहाँ तक बखूबी साथ निभाने के लिए शुक्रिया, करम, मेहरबानी.......ब्लॉगर मन की व्यथा का आपकी प्रतिक्रियाओं ने सही समाधान निकाला. अब तो "कर्म किया जा, फल बहुत महंगे हैं इसलिए उनके बारे में तो सोच भी मत" ही अपना नारा है. वैसे यह सफ़र बहुत लम्बा चलने वाला है, ऐसे शुभ संकेत तो मिल ही गए हैं और भगवान करे ये सफ़र यूँ ही चलता रहे, कभी ख़त्म ना हो ....... इसी बात पर ब्लॉगर के मन का सन्देश भी कुछ यूं है :

जीवन में इक लक्ष्य अगर है तुमको पाना,
रखना थोड़ा धैर्य और चलते ही जाना;
पथ की चिंताएं सब खुद ही मिट जायेंगी,
चिंता छोड़ हमेशा चिंतन को अपनाना।

पंथ लगेगा दीर्घ बहुत, आरम्भ यही है,
पार मिलेगा सही, कहीं पर रुक ना जाना;
मिलकर काँटों का आभार प्रकट करना तुम,
काँटें, बनकर पुष्प हृदय, अपनाते जाना।

मिले ख़ुशी तो बाँट दूसरों को दे देना,
ग़म को भी एक मित्र मानकर गले लगाना;
दुःख-सुख की चक्की ये चलती ही जायेगी,
दोनों का ही लगा रहेगा आना-जाना।

सदा विफलता को स्मृति पुंज में रखो,
जो ना चाहो सफलता से बहक जाना;
ईर्ष्या, लालच, दंभ, द्वेष को दूर भगाओ,
रहे भरा और पूरा सदगुण का खज़ाना।

अनुभव खट्टे-मीठे, कुछ कड़वे भी होंगे,
हर का लेकिन स्वाद तुम्हे है चखते जाना;
थकना और रुकना तुमको अब याद नहीं है,
याद यही है बढ़ना और बढ़ते ही जाना।

ब्लॉगर के मन की व्यथा

गुरुवार, 18 जून 2009

प्रत्येक ब्लॉगर यही चाहता है कि वह अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने में समर्थ हो सके। कुछ इस प्रयोजन में सफल हो जाते हैं क्योंकि वे बहुत अच्छा लिखते हैं, उनकी अपनी लेखनी पर पकड़ है या वे प्रसिद्धि के शिखर पर हैं। परन्तु जो बावजूद अच्छा लिखने के किन्हीं अन्य कारणों से इस प्रयास में पीछे रह जाते हैं, उनके मन की दशा एवं व्यथा का चित्रण इस कविता के माध्यम से करने का प्रयास किया गया है। अन्य ब्लोगर्स के ब्लॉग की चमक-दमक देखकर बस एक ही ख़याल उनके मन में बार-बार आता है कि......

वह पोस्ट कहाँ से लाऊं,
जिस पर टिप्पणियों के बादल उमड़-घुमड़ कर बरसें,
देख जिसे हर ब्लॉगर ऐसी ही लिखने को तरसे,
पढ़कर जिसको पाठक अपने मन की बातें पाए,
देख जिसे हर पाठक खिंचता हुआ चला आए।

हो पसंद की अग्रश्रेणी में जो ब्लोगवाणी पे,
चिट्ठाजगत भी इस स्थिति का करे समर्थन खुलके,
आज अधिक पढ़े गए में नाम जिसका आए,
आज अधिक टिप्पणी प्राप्त में ना पीछे रह जाए।

जिसके कारण ब्लॉग जगत में अपना सिक्का चल जाए,
पढ़कर जो भी जाए बार-बार वो आए,
पाठक आयें इतने कि काउंटर अपना चिल्लाये,
और गूगल पेज रैंक भी ज़ीरो से बढ़ जाए।

किन्तु विषय क्या हो सकता है कहते हैं कविराय,
हो कोई कविता, कहानी, या चर्चा की जाए ??
बहुत सोचा बहुत विचारा, किंतु खेद है हाय,
अपने को तो नहीं सूझता, कोई हो तो बताए।

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कितना बदल गया भगवान : भाग-२ (कारण)

शुक्रवार, 12 जून 2009

"कितना बदल गया भगवान" लिखते समय यह कभी नहीं सोचा था कि आपकी प्रतिक्रियाएं आज मुझे पुनः उसी विषय पर कलम उठाने के लिए प्रेरित करेंगी, इसलिए सर्वप्रथम मैं आप सभी सुधी पाठकों एवं टिप्पणीकारों का तहे दिल से शुक्रिया करता हूँ जो आप सभी ने मेरी सोच का मार्गदर्शन किया एवं मेरे विचारों को एक नया आयाम दिया। साथ ही साथ नए पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूंगा कि इस आलेख को पढ़ने से पहले इस आलेख की पिछली कड़ी "कितना बदल गया भगवान" ज़रूर पढ़ लें। शुरू करने से पहले सभी से एक अनुरोध है कि कभी भी अपने विचारों का दमन ना करें, उन्हें किसी किसी रूप में अवश्य व्यक्त करें (बशर्ते कि विचार सुविचार हों) ज़रा सोचिये उस दिन होटल में बच्चों की बातें सुनकर मेरे मन में उठे विचारों को अगर मैं आपके सामने प्रस्तुत नहीं करता, उसके बाद आलेख को पढ़कर यदि आप अपने विचार व्यक्त नहीं करते तो क्या आज मैं यह आलेख लिख रहा होता ?? कभी नहीं....... इसलिए निवेदन है कि सुविचारों का गला घोंटें।

चलिए अब अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं और जानते है समाज का बाल-वर्ग क्यूँ अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विरुद्ध आचरण कर रहा है। मैंने इस विषय पर अपनी ओर से किए गए शोध में कारणों के रूप में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जो मुख्यतया पाँच श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं:

. एकाकी परिवारों का चलन : समाज में एकाकी परिवारों के प्रचलन की बढ़ती प्रवृत्ति का सबसे भयानक असर हुआ है तो बच्चों पर, उनके बचपन पर। कहाँ तो पहले बच्चे संयुक्त परिवार में बड़े होते थे, जहाँ पर उन्हें माता-पिता के साथ-साथ दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई इत्यादि का स्नेह एवं संरक्षण मिलता था। दादा-दादी के किस्से-कहानियां सिर्फ़ उनका मनोरंजन करते थे बल्कि हलके-फुल्के अंदाज में कोई कोई सीख अवश्य दे जाते थे। इसी लिए दादा-दादी, नाना-नानी के किस्से आज भी लोकप्रिय हैं। साझे परिवार में रहना अपने आप बच्चों को मिल-जुलकर रहना, अच्छी बातें बोलना, सभी से प्रेम करना, लड़ाई-झगड़ा करना जैसी बातें सिखा देता था। यदि परिवार में कोई दुष्प्रवृत्ति का होता भी था तो सभी का यही प्रयास होता था कि बच्चों को उससे दूर रखा जाए, अब ये बात एकाकी परिवार में कहाँ सम्भव है। एकाकी परिवार में तो माता-पिता के अलावा सिर्फ़ बच्चे ही बचते हैं। यदि इनमें से एक भी निरंकुश हो जाए तो ?? वैसे मेरा कहने का मतलब यह नहीं कि एकाकी परिवारों में बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दिए जा सकते, मगर ऐसे परिवार बहुत कम देखने को मिलते हैं। देखा जाए तो एकाकी परिवार हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं ही नहीं, ऐसे में यह बात और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

. माता-पिता की अनदेखी : माता-पिता दोनों ही कमाऊ, ऐसे में माता-पिता की अनुपस्तिथि में बच्चे को संभालने के लिए आया वगैरह रख दी जाती है। कभी-कभी महंगे तोहफे, खिलौने देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। मगर जनाब, बच्चा प्यार का भूखा होता है। वह चाहता है माता-पिता का साथ, उनका स्नेह और जब वह पाता है कि माता-पिता उसकी परवाह किए बगैर सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसों के पीछे भाग रहे हैं तो वह विद्रोही स्वभाव का हो जाता है। चिडचिड़ापन और उदासी ही उसके हर वक्त के साथी बन जाते हैं। वह आस-पास के माहौल से अपनी तुलना करने लग जाता है, मसलन स्कूल जाते समय किसी बच्चे को अपने पापा के साथ साइकिल पर जाते देख उसे ड्राईवर द्वारा ख़ुद को मर्सीडीज में स्कूल छोड़ा जाना बेमानी लगता है। किसी बच्चे को लेने आती उसकी मम्मी को देख वह अपनी हालत पर दुखी हो जाता है। ऐसी ही बातें बच्चों के मानसिक ह्रास के लिए उत्तरदायी हैं।

. माता-पिता की अनावश्यक छूट : कहा गया है "अति सर्वत्र वर्जयेत्" अर्थात हर चीज़ की अधिकता बुरी होती है। बच्चों को मिलने वाली छूट के मामले में भी यह बात लागू होती है। माता-पिता को घर पर एक संतुलित माहौल बनाये रखना चाहिए, ना तो ज्यादा अनुशासन और ना ही बेवजह की ढील। कुल मिलाकर बच्चे को बचपन से ही जहाँ अच्छी बातों के लिए प्रेरित करना चाहिए, वहीं उसकी अनुचित मांगों पर नियंत्रण भी लगाना चाहिए। मगर कुछ अभिभावक जहाँ स्वयं कई तरह के तनावों और दबावों के शिकार होने के कारण घर का वातावरण ठीक नहीं रख पाते जो बच्चों की उद्दंडता का प्रमुख कारण है वहीं कुछ के पास पानी की तरह बहाने के लिए पैसा है जो बच्चों को घमंडी एवं भोग-विलास का आदी बना देता है।

. टी वी और इन्टरनेट का दुष्प्रभाव : कभी वह ज़माना था जब बुनियाद, मिट्टी के रंग, हम लोग, रामायण जैसे धारावाहिक टी वी पर आते थे और सभी को भाते थे। अश्लीलता और फूहड़पने का नामोनिशान तक नहीं था। मगर आज जब पश्चिम की हवाओं ने अपना असर दिखाया है और हर कोई पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण कर रहा है तो बच्चे भी जाहिर सी बात है करेंगे, वैसे भी बच्चे ज्यादातर आदतें, चाहे अच्छी हों या बुरी, बड़ों को देखकर ही सीखते हैं। ऍम टी वी, वी टी वी जैसे चैनल और उन पर रहे रोडीज, स्प्लिट्स विला जैसे कार्यक्रम जो कहीं से भी स्वस्थ मनोरंजन की श्रेणी में नहीं आते, किसी प्रकार की शिक्षा या सीख उम्मीद रखना तो बेकार हैं इनसे, पता नहीं कैसे आज के बच्चों और युवाओं की दीवानगी बने हुए हैं। इन्टरनेट तो इनसे एक कदम और भी आगे है। किसी भी तरह की रोक-टोक नहीं। चरित्र हनन की समस्या यहीं से पैदा होती है।

. कुसंगति : रहीमदासजी का एक दोहा है :
कदली सीप भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन।।
ठीक यही बात यहाँ पर भी लागू होती है। कुसंग को मैं दो तरह से देखता हूँ:
पहला है पारिवारिक कुसंग अर्थात परिवार में चल रही ग़लत बातों का बच्चों पर असर। यदि परिवार में कोई ग़लत आचरण करता है, गाली-गलौज करता है, लड़ाई-झगड़ा होता है, ईर्ष्या-द्वेष भरा पड़ा है, तो बच्चे पर उसका असर होगा ही। परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला कहे जाते हैं, इस लिहाज से बच्चे को अच्छा या बुरा देने में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

दूसरा है मैत्रिक कुसंग अर्थात मित्रों एवं सहपाठियों से प्राप्त होने वाला कुसंग। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है सो मित्रता करना स्वाभाविक है। अगर अच्छे मित्र मिल गए तो ठीक वरना भगवान ही मालिक है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखकर लगता नहीं कि अच्छे मित्र शेष हैं। अगर हैं भी तो उनसे मित्रता करना ही नहीं चाहता कोई, सब चाहते है ऐसा दोस्त जो क्लास का दादा हो, जिसकी सीनियर्स से जान-पहचान हो ताकि काम पड़ने पर कुछ फायदा उठाया जा सके। ऐसे दोस्त भी फ़िर उनका खूब फायदा उठाते हैं, लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौज, उद्दंडता, चोरी इत्यादि से लेकर नशे जैसी ग़लत आदतों में फंसाकर। दरअसल इंसान की ग़लत चीज़ों को जल्द अपनाने की प्रवृत्ति होती है फ़िर बच्चे तो ठहरे नासमझ, इसलिए मैत्रिक कुसंग का आसानी से शिकार हो जाते हैं।

इन सब कारणों के अलावा और भी कुछ ऐसे कारण हो सकते हैं जो बच्चों के बिगड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। यदि आप की नज़र में हो तो कृपया सभी के साथ बांटने की कृपा ज़रूर करें क्योंकि आप सभी का सहयोग ही इस चर्चा को सफल बना सकता है।

अगली कड़ी में इस भयावह स्थिति से निपटने और निकलने के उपायों पर चर्चा ज़रूर करेंगे।

सभी धरतीवासियों के लिए : पर्यावरण पर भाषण एकदम मुफ़्त

शुक्रवार, 5 जून 2009

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। तारीख बता देना उचित समझूंगा क्योंकि अगर कोई व्यक्ति कल, परसों, उसके अगले दिन, अगले हफ्ते, अगले महीने अर्थात कुल मिलाकर आज के बाद इस पोस्ट को पढ़े तो (ज्यादा से ज्यादा) मुझे पागल नहीं समझे और (कम से कम) ख़ुद चकराए नहीं। हाँ...तो आज से मतलब ५ जून से है। पता चल गया ?? चलो अच्छी बात है.......यह दिन पर्यावरण और उसके संरक्षण को समर्पित है। अब चाहे सारे साल भर हमनें कितनी भी गन्दगी क्यों ना फैलाई हो; फ्रिज, ए सी, डियो इत्यादि का अंधाधुंध प्रयोग कर ओजोन परत के छेद को बड़ा करने में अपना योगदान भी दिया हो; लाख मना करने के बावजूद पोलिथीन का प्रयोग किया हो; मुन्ना को पास की दुकान से नमक लाने लिए भी स्कूटी, बाईक या कार से ही भेजा हो (आख़िर इज्ज़त का सवाल है भई); पार्क में जाकर फूल-पौधे-पत्तियाँ तोड़ी हों (ऐसे ही हाथों में खुजली हो रही थी) एवं कितने ही ऐसे अन्य काम किए हों जिनसे पर्यावरण नाम की चिड़िया को खतरा है, तो भी आज हम पर्यावरण संरक्षण की महिमा का गुणगान करेंगे। कल से फ़िर वही अपना रोज का चालू .....कौन देखता है और किसे फरक पड़ता है....हम तो भई जैसे हैं वैसे रहेंगे।

चलिए जब हमने भी आज और केवल आज के लिए पर्यावरण-प्रेमी का चोला पहन ही लिया है तो आप की जानकारी के लिए बताए देते हैं कि इस बार का विश्व पर्यावरण सम्मलेन मैक्सिको की राजधानी मैक्सिको सिटी में हो रहा है, जिसका विषय है : आपके ग्रह को ज़रूरत है आपकी - जलवायु परिवर्तन का सामना करने को एकजुट हों; मामू हिन्दी में बोले तो "Your Planet Needs You - UNite to Combat Climate Change"। समूचा विश्व आज जबकि पर्यावरण के लिए बढ़ते खतरों पर चिंता जताते हुए उनके कारणों एवं निदान के लिए एक-जुट होने का आवाहन कर रहा है, ऐसे मैं मैंने सोचा लगे हाथों मैं भी कुछ फोकट के विचार व्यक्त कर लूँ इस विषय पर :

. पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा है इंसान, सो सर्वप्रथम इस जीव की निरंकुशता पर नियंत्रण लगाया जाए, तभी बात आगे बढ़ सकती है। मगर कैसे ?? क्या यार....कभी तो अपने दिमाग का इस्तेमाल कर लिया करो। ऊपर जो बुरी-बुरी आदतें बतायी हैं उनका अचार लगाओगे क्या, उनमें से अगर कुछ आपमें भी हैं, तो उन्हें छोड़ो और अच्छी आदतें अपनाओ वगैरह-वगैरह।
. इस्तेमाल में ना आने वाली पुरानी चीज़ों को फेंकें नहीं वरन उनके पुनः प्रयोग का उपाय खोजें। अब जैसे हमने खोजा है इस पोस्ट को पुनः प्रयोग करने का तरीका। ध्यान से देखें तो इस पोस्ट में तारीख हमने सिर्फ़ ५ जून लिखी है, वर्ष कहीं पे भी नहीं लिखा है, तो बन गई ना ये पोस्ट सदाबहार। चाहो तो २०१०, २०११, २०१२ या फ़िर किसी भी साल, सदी में छापो, छापते रहो...
. एक ऐसी प्रतियोगिता का आयोजन किया जाए जिसमें सबसे ज्यादा गन्दगी फैलाने वाले को पुरस्कृत किया जाए और पुरस्कार स्वरुप उसे उसी का फैलाया कूड़ा-कबाड़ इत्यादि प्रदान किया जाए।
. पेड़ तो ज़रूर लगाओ खासकर हर मौसम के फलदार पेड़, औरों के लिए नहीं तो कम से कम अपने लिए ही सही। वृद्धावस्था में अगर संतान धोखा दे गई तो भूखा मरने से तो बच जाओगे।
. कम से कम साल में आज के दिन तो पर्यावरण-प्रेमी का चोला पहनो। फ़िर दिनों की संख्या १ से २, २ से ३, इसी क्रम में बढ़ाते जाओ। बुरी आदतें एकदम से नहीं छूटती इसलिए कोई जल्दबाजी नहीं। अरे कभी तो वो सुबह आएगी.......

बस बहुत खा लिया आपका कीमती समय और दिमाग। कुछ ज्यादा ही भाषण दे दिया हो तो क्षमा कीजियेगा.......

शेष फ़िर!!!

कितना बदल गया भगवान

बुधवार, 3 जून 2009

आजकल के हालात हममें से किसी से भी छुपे नहीं हैं। बदलते ज़माने के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया है। रिश्ते-नाते, परम्परा, संस्कृति, समाज सब कुछ तो बदल गया है इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में। और सबसे बड़ी बात इंसान ही बदल गया है। "इंसानियत वाला इंसान" नामक प्राणी विलुप्ति की कगार पर है। नास्तिक फ़िल्म का गीत "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान......." एकदम सही लिखा गया है इन हालातों पर। अब तो आलम यह है कि हर कोई इन हालातों को अपनी नियति मानकर जी रहा है। "क्या फ़र्क पड़ता है" वाली विचारधारा ज़ोर पकड़ती जा रही है। कहने को दुनिया में पहुँच का दायरा बढ़ता जा रहा है, परन्तु इन सबके बीच इंसान की सोच और सोच का दायरा सिकुड़ता जा रहा है, बल्कि मैं तो ये कहूँगा की सोचने का ढंग बदलता जा रहा है, दिशा बदलती जा रही है। बच्चों का बचपन भी इन सब से अछूता नहीं रह गया है।

अभी कुछ दिन पहले की बात बताता हूँ। मैं एक होटल में खाना खा रहा था। मेरे सामने वाली मेज पर दो बच्चे बैठे हुए थे। उम्र रही होगी उनकी कोई ७ या ८ साल। दोनों नूडल्स खा रहे थे और खाते-खाते बातें भी किए जा रहे थे। चूँकि मैं उनके पास ही था इसलिए मुझे उनकी बातें बिल्कुल साफ़-साफ़ सुनाई दे रहीं थी। देखने में दोनों अच्छे घरों के लग रहे थे। पहले तो वे अपने स्कूल और दोस्तों वगैरह की बातें कर रहे थे, सो मैं उनकी बातें सुन तो रहा था पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उनके बीच में हुई कुछ बातों ने मेरे कान खड़े कर दिए। गाली-गलौज से भरा हुआ उनका संवाद (यहाँ संपादित रूप में) कुछ इस तरह था :-

पहला : यार..... कल पता क्या हुआ ??
दूसरा : क्या ??
पहला : मेरे भैया ने दो तीन लड़कों की खूब कुटाई की, सालों के हाथ-पैर तोड़ दिए।
दूसरा : हैं ?? मगर क्यूँ ??
पहला : अबे वो तीनों बंशी के ढाबे पे बैठकर खाना खा रहे थे। पास में ही मेरे भैया और उनके दोस्त बैठे थे। अब भैया का मूड किया तो सिगरेट पीने लगे। ज़रा सा धुआं उन तीनों की तरफ़ चला गया तो उनमें से एक लगा उछलने। बोला, आप को पता नहीं यहाँ पर सिगरेट पीना मना है, आप कहीं और क्यूँ नहीं जाते। अगर पुलिस में कम्प्लेंट कर दी तो फाइन हो जाएगा। दिमाग चाट डाला यार उसने भैया का।
दूसरा : फ़िर ??
पहला : फ़िर क्या...अपने भैया को फालतू की चिक-चिक पसंद नहीं है। खींच के धर दिया उस लौंडे को। लग गई होगी अकल ठिकाने उसकी, बड़ा हीरो बन रहा था। मगर उसके साथी हाथापाई पर उतर आए। तभी ढाबे वाले ने बीच-बचाव करके मामले को रफा-दफा कर दिया। पर अपने भैया तो शेर हैं। बोल दिया उनको बाहर मिलने को। बाहर भैया ने अपने और दोस्तों को भी कट्ठा कर लिया और सबके हाथ-पैर तोड़ दिए। क्यूँ मान गया न अपने भैया को।
दूसरा : हाँ यार, ठीक किया तेरे भैया ने। ऐसे लोगों को यही सबक सिखाना चाहिए। अपने पैसों की ही तो पी रहे थे तेरे भैया, फ़िर भी चले आए पता नहीं कहाँ से टांग अड़ाने। एक सेकंड, तू ऐसा क्यूँ नहीं करता कभी अपने भैया को स्कूल में ले आ, सबकी वाट लग जायेगी। चल, अब आगे का बता।
पहला : पर एक पंगा पड़ गया। भैया और उनके दोस्तों को पुलिस पकड़कर ले गई। मगर पापा ने उन्हें छुड़ा लिया, टेंशन की कोई बात ही नहीं। लेकिन चलो अपने भैया ने दो-चार के हाथ पैर ही तो तोड़े, ख़ुद तो पिटकर नहीं आए, वरना पापा की क्या इज्ज़त रह जाती। सब लोग बोलते अरे इसका बेटा पिटकर आया है।

ये सब सुनकर मेरे होश उड़ गए। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि इस उम्र में ऐसी बातें बनाना इन्होने कहाँ से सीखा ?? आख़िर किसने ये सब बातें इनके दिमाग में डाली ?? इनके सोचने का ढंग तो मासूमियत और निश्छलता से परे है। क्या वाकई ये बच्चे मन के सच्चे कहलाने के लायक हैं। इस संवाद से तो ये कदापि नहीं लगता। अपने बचपन के दिनों को याद करने लगा जब हम कितने भोले-भाले, लाग-लपेट से दूर, सीधे-सादे हुआ करते थे। ऐसी बातें तो हम सपने में भी नहीं सोच सकते थे। आख़िर कहाँ गया वो बचपन ?? वो भोलापन ?? यदि बचपन ऐसा है तो फ़िर जवानी और बुढ़ापे का अंदाज़ा आप ख़ुद लगा सकते हैं। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं, ऐसा सुनता और मानता आया था। मगर ये सब देखकर सोचता हूँ अब भगवान का यह रूप भी सुरक्षित नहीं रहा बाहरी दुनिया के प्रभाव से। हमारे ये नन्हे भगवान कहीं खोते जा रहे हैं। अंत में, बस इतना ही कहना चाहूंगा :

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई ______, कितना बदल गया भगवान (बहुत सोचा पर समझ नहीं आया खाली जगह में क्या लिखूं ?? आप को कुछ सूझे तो बताइएगा ज़रूर)