स्मृति के झरोखों से: कारगिल विजय दिवस

रविवार, 26 जुलाई 2009

आज ही का दिन तो था, जब सारा देश जीत की खुशी से ज्यादा अपने सपूतों को खोने के ग़म में डूबा हुआ था। यकीन ही नहीं आता कि उस बात को बीते एक दशक हो चुका है, लेकिन आज भी अगर हर हिन्दुस्तानी का मन टटोला जाए तो उस बात के निशान बिल्कुल ताज़ा ही मिलेंगे। एक लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी वो यादें अनायास ही आंखों को भिगोने के लिए काफ़ी हैं। अब अगर युवापीढ़ी की बात करें तो मुझे नहीं लगता ५ या १०% से ज्यादा को इस बात की भनक भी होगी, खैर छोड़िए इस बात को क्योंकि अगर मैंने " इसे दुर्भाग्य कहें इस देश का या पश्चिमी सभ्यता का असर, जहाँ वैलेनटाइन्स डे का तो हर नवयुवक और नवयुवती को पता है मगर इस ख़ास दिन के बारे में उन्हें याद दिलाना पड़ता है" ऐसा कुछ कह दिया तो मेरे एक मित्र जो मेरे इन विचारों को दकियानूसी बताने से बाज़ नहीं आते, इस बार भी टीका-टिप्पणी करने से नहीं चूकेंगे। इसलिए चुपचाप बता देने में ही भलाई है कि हम बात कर रहे हैं २६ जुलाई यानी कारगिल विजय दिवस की जो १९९९ के कारगिल युद्ध में अपना बलिदान देने वाले सैनिकों की स्मृति में हर साल मनाया जाता है।

४६४ जवानों ने देश की सीमाओं के भीतर घुस आए दुश्मन को मुंह-तोड़ जवाब देते हुए जिस अदम्य साहस, शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए अपने प्राण न्यौछावर किए, उसे हम लफ्जों में बयाँ तो नहीं कर सकते, हाँ उस जज़्बे को सलाम ज़रूर कर सकते हैं। आज भी जब उस समय का ज़िक्र चलता है तो याद आते हैं कारगिल, द्रास, बटालिक और मुश्कोह घाटी जैसे स्थान। याद आती हैं टाईगर हिल, तोलोलिंग, पिम्पल काम्प्लेक्स जैसी पहाडियाँ। याद आते हैं मनोज पाण्डेय, विक्रम बत्रा, संजय कुमार, सौरभ कालिया जैसे नाम। किस तरह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर असम तक फैला यह देश अपने इन वीरों की सलामती की दिन-रात दुआएं मांगता था, ये भी याद आता है। कैसे जब किसी सैनिक का तिरंगे में लिपटा हुआ ताबूत आता था तो सारे इलाके में शोक की लहर दौड़ जाती थी। धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सिर्फ़ एक ही भाव प्रबल था : देशप्रेम। काश! ये भाव ही चिरस्थायी प्रबल रहे तो कितना अच्छा हो.......

कितनी ही माँओं ने अपने बच्चे खोये, कितनी स्त्रियों ने अपने सुहाग, कितनी बहनों ने राखी बंधवाने वाली कलाइयां, पिताओं ने अपने कलेजे के टुकड़े, क्यों ? इस देश की खातिर, इसके अमन-चैन की खातिर, इस तिरंगे की खातिर, हम सब की खातिर; और अगर हम ही उनकी कुर्बानी को भुला बैठेंगे तो इससे बड़ी कृतघ्नता और क्या होगी ?? उन्होनें इस महायज्ञ में अपनी आहुतियाँ इसलिए नहीं दी कि हम उसे धुंआ बनकर उड़ जाने दें और कहीं खो जाने दें। इसलिए हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हमें उन्हें उस खुली हवा में महसूस करें जिसमें हम साँस लेते हैं, उन बहारों-फिजाओं में महसूस करें जिनका हम आनंद लेते हैं, अपनी हर खुशी में महसूस करें, अपने हर जश्न में शरीक करें और मेरे हिसाब से यही इन वीरों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

अंत में.......
जो योद्धा लड़ाई के मैदान में प्राण विसर्जन करता है उसकी मृत्यु के लिए शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि वह स्वर्ग में सम्मानित होता है - कारगिल युद्ध स्मारक, द्रास

उपयोगी कड़ी: ज्यादा जानकारी के लिए आप कारगिल युद्ध पर आधारित भारतीय सेना की आधिकारिक वेबसाइट देख सकते हैं।

कविता : सपूत

रविवार, 12 जुलाई 2009

कुछ समय पहले गौतम राजरिशी जी के ब्लॉग पर "मेजर ऋषिकेश रमानी - शौर्य का नया नाम" पोस्ट पढ़ी थी जिसे पढ़कर सीमा पर डटे अपने इन वीर जवानों के प्रति श्रद्धा भाव और बढ़ गया। साथ ही सरकार और मीडिया की अनदेखी से जुड़ी कुछ कड़वी सच्चाइयां भी सामने आई। इन्हीं सब मनोभावों से जन्मी यह कविता आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। और एक ख़ास बात आप सभी पाठकों से....... कृपया सर, महोदय जैसे संबोधनों का प्रयोग ना करें, यकीन जानिए मैं उम्र और अनुभव में आपसे बहुत छोटा हूँ, इसलिए आपसे स्नेह की ही आकांक्षा रखता हूँ.......

आँख नम है, सर झुका है,
वो चला जा रहा है देखो,
किसी माँ का लाड़ला इक,
चार कांधों के सहारे।
जी चुका जो पूर्ण जीवन,
छा रहा था किंतु यौवन,
देश की सीमा पे जिसने,
कर दिया तन-मन समर्पण।

रह गया जो याद बनकर,
स्मृति चिन्हों में उतरकर,
लड़ गया ख़ुद ही अकेला,
कर्तव्य सर-माथे पे रखकर।
देश को ही बहन माना,
देश को ही माँ समझकर,
देश की रक्षा को जिसने
कर दिए पण-प्राण अर्पण।

माँ अकेली रो रही है,
बहन भी बेसुध पड़ी है,
थे पिता के कितने सपने,
एक विधवा भी खड़ी है।
आज धरती ने भी अपना,
इक सपूत खो दिया है,
हवा भी खामोश चुप है,
गूंजता सिर्फ़ करुण क्रंदन।

लिपटा हुआ तिरंगे में वो,
पुष्पमाला सज चुकी है,
तारीफ़ के पुल बांधते सब,
२१ तोपें बज चुकी हैं।
कुछ समय में पदक देकर,
सब भुला बैठेंगे उसको,
पर नहीं भूलेगा उसको,
देश की माटी का कण-कण।