सभी धरतीवासियों के लिए : पर्यावरण पर भाषण एकदम मुफ़्त
शुक्रवार, 5 जून 2009आज विश्व पर्यावरण दिवस है। तारीख बता देना उचित समझूंगा क्योंकि अगर कोई व्यक्ति कल, परसों, उसके अगले दिन, अगले हफ्ते, अगले महीने अर्थात कुल मिलाकर आज के बाद इस पोस्ट को पढ़े तो (ज्यादा से ज्यादा) मुझे पागल नहीं समझे और (कम से कम) ख़ुद चकराए नहीं। हाँ...तो आज से मतलब ५ जून से है। पता चल गया ?? चलो अच्छी बात है.......यह दिन पर्यावरण और उसके संरक्षण को समर्पित है। अब चाहे सारे साल भर हमनें कितनी भी गन्दगी क्यों ना फैलाई हो; फ्रिज, ए सी, डियो इत्यादि का अंधाधुंध प्रयोग कर ओजोन परत के छेद को बड़ा करने में अपना योगदान भी दिया हो; लाख मना करने के बावजूद पोलिथीन का प्रयोग किया हो; मुन्ना को पास की दुकान से नमक लाने लिए भी स्कूटी, बाईक या कार से ही भेजा हो (आख़िर इज्ज़त का सवाल है भई); पार्क में जाकर फूल-पौधे-पत्तियाँ तोड़ी हों (ऐसे ही हाथों में खुजली हो रही थी) एवं कितने ही ऐसे अन्य काम किए हों जिनसे पर्यावरण नाम की चिड़िया को खतरा है, तो भी आज हम पर्यावरण संरक्षण की महिमा का गुणगान करेंगे। कल से फ़िर वही अपना रोज का चालू .....कौन देखता है और किसे फरक पड़ता है....हम तो भई जैसे हैं वैसे रहेंगे।
चलिए जब हमने भी आज और केवल आज के लिए पर्यावरण-प्रेमी का चोला पहन ही लिया है तो आप की जानकारी के लिए बताए देते हैं कि इस बार का विश्व पर्यावरण सम्मलेन मैक्सिको की राजधानी मैक्सिको सिटी में हो रहा है, जिसका विषय है : आपके ग्रह को ज़रूरत है आपकी - जलवायु परिवर्तन का सामना करने को एकजुट हों; मामू हिन्दी में बोले तो "Your Planet Needs You - UNite to Combat Climate Change"। समूचा विश्व आज जबकि पर्यावरण के लिए बढ़ते खतरों पर चिंता जताते हुए उनके कारणों एवं निदान के लिए एक-जुट होने का आवाहन कर रहा है, ऐसे मैं मैंने सोचा लगे हाथों मैं भी कुछ फोकट के विचार व्यक्त कर लूँ इस विषय पर :
१. पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा है इंसान, सो सर्वप्रथम इस जीव की निरंकुशता पर नियंत्रण लगाया जाए, तभी बात आगे बढ़ सकती है। मगर कैसे ?? क्या यार....कभी तो अपने दिमाग का इस्तेमाल कर लिया करो। ऊपर जो बुरी-बुरी आदतें बतायी हैं उनका अचार लगाओगे क्या, उनमें से अगर कुछ आपमें भी हैं, तो उन्हें छोड़ो और अच्छी आदतें अपनाओ वगैरह-वगैरह।
२. इस्तेमाल में ना आने वाली पुरानी चीज़ों को फेंकें नहीं वरन उनके पुनः प्रयोग का उपाय खोजें। अब जैसे हमने खोजा है इस पोस्ट को पुनः प्रयोग करने का तरीका। ध्यान से देखें तो इस पोस्ट में तारीख हमने सिर्फ़ ५ जून लिखी है, वर्ष कहीं पे भी नहीं लिखा है, तो बन गई ना ये पोस्ट सदाबहार। चाहो तो २०१०, २०११, २०१२ या फ़िर किसी भी साल, सदी में छापो, छापते रहो...
३. एक ऐसी प्रतियोगिता का आयोजन किया जाए जिसमें सबसे ज्यादा गन्दगी फैलाने वाले को पुरस्कृत किया जाए और पुरस्कार स्वरुप उसे उसी का फैलाया कूड़ा-कबाड़ इत्यादि प्रदान किया जाए।
४. पेड़ तो ज़रूर लगाओ खासकर हर मौसम के फलदार पेड़, औरों के लिए नहीं तो कम से कम अपने लिए ही सही। वृद्धावस्था में अगर संतान धोखा दे गई तो भूखा मरने से तो बच जाओगे।
५. कम से कम साल में आज के दिन तो पर्यावरण-प्रेमी का चोला पहनो। फ़िर दिनों की संख्या १ से २, २ से ३, इसी क्रम में बढ़ाते जाओ। बुरी आदतें एकदम से नहीं छूटती इसलिए कोई जल्दबाजी नहीं। अरे कभी तो वो सुबह आएगी.......
बस बहुत खा लिया आपका कीमती समय और दिमाग। कुछ ज्यादा ही भाषण दे दिया हो तो क्षमा कीजियेगा.......
शेष फ़िर!!!
कितना बदल गया भगवान
बुधवार, 3 जून 2009आजकल के हालात हममें से किसी से भी छुपे नहीं हैं। बदलते ज़माने के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया है। रिश्ते-नाते, परम्परा, संस्कृति, समाज सब कुछ तो बदल गया है इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में। और सबसे बड़ी बात इंसान ही बदल गया है। "इंसानियत वाला इंसान" नामक प्राणी विलुप्ति की कगार पर है। नास्तिक फ़िल्म का गीत "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान......." एकदम सही लिखा गया है इन हालातों पर। अब तो आलम यह है कि हर कोई इन हालातों को अपनी नियति मानकर जी रहा है। "क्या फ़र्क पड़ता है" वाली विचारधारा ज़ोर पकड़ती जा रही है। कहने को दुनिया में पहुँच का दायरा बढ़ता जा रहा है, परन्तु इन सबके बीच इंसान की सोच और सोच का दायरा सिकुड़ता जा रहा है, बल्कि मैं तो ये कहूँगा की सोचने का ढंग बदलता जा रहा है, दिशा बदलती जा रही है। बच्चों का बचपन भी इन सब से अछूता नहीं रह गया है।
अभी कुछ दिन पहले की बात बताता हूँ। मैं एक होटल में खाना खा रहा था। मेरे सामने वाली मेज पर दो बच्चे बैठे हुए थे। उम्र रही होगी उनकी कोई ७ या ८ साल। दोनों नूडल्स खा रहे थे और खाते-खाते बातें भी किए जा रहे थे। चूँकि मैं उनके पास ही था इसलिए मुझे उनकी बातें बिल्कुल साफ़-साफ़ सुनाई दे रहीं थी। देखने में दोनों अच्छे घरों के लग रहे थे। पहले तो वे अपने स्कूल और दोस्तों वगैरह की बातें कर रहे थे, सो मैं उनकी बातें सुन तो रहा था पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उनके बीच में हुई कुछ बातों ने मेरे कान खड़े कर दिए। गाली-गलौज से भरा हुआ उनका संवाद (यहाँ संपादित रूप में) कुछ इस तरह था :-
पहला : यार..... कल पता क्या हुआ ??
दूसरा : क्या ??
पहला : मेरे भैया ने दो तीन लड़कों की खूब कुटाई की, सालों के हाथ-पैर तोड़ दिए।
दूसरा : हैं ?? मगर क्यूँ ??
पहला : अबे वो तीनों बंशी के ढाबे पे बैठकर खाना खा रहे थे। पास में ही मेरे भैया और उनके दोस्त बैठे थे। अब भैया का मूड किया तो सिगरेट पीने लगे। ज़रा सा धुआं उन तीनों की तरफ़ चला गया तो उनमें से एक लगा उछलने। बोला, आप को पता नहीं यहाँ पर सिगरेट पीना मना है, आप कहीं और क्यूँ नहीं जाते। अगर पुलिस में कम्प्लेंट कर दी तो फाइन हो जाएगा। दिमाग चाट डाला यार उसने भैया का।
दूसरा : फ़िर ??
पहला : फ़िर क्या...अपने भैया को फालतू की चिक-चिक पसंद नहीं है। खींच के धर दिया उस लौंडे को। लग गई होगी अकल ठिकाने उसकी, बड़ा हीरो बन रहा था। मगर उसके साथी हाथापाई पर उतर आए। तभी ढाबे वाले ने बीच-बचाव करके मामले को रफा-दफा कर दिया। पर अपने भैया तो शेर हैं। बोल दिया उनको बाहर मिलने को। बाहर भैया ने अपने और दोस्तों को भी कट्ठा कर लिया और सबके हाथ-पैर तोड़ दिए। क्यूँ मान गया न अपने भैया को।
दूसरा : हाँ यार, ठीक किया तेरे भैया ने। ऐसे लोगों को यही सबक सिखाना चाहिए। अपने पैसों की ही तो पी रहे थे तेरे भैया, फ़िर भी चले आए पता नहीं कहाँ से टांग अड़ाने। एक सेकंड, तू ऐसा क्यूँ नहीं करता कभी अपने भैया को स्कूल में ले आ, सबकी वाट लग जायेगी। चल, अब आगे का बता।
पहला : पर एक पंगा पड़ गया। भैया और उनके दोस्तों को पुलिस पकड़कर ले गई। मगर पापा ने उन्हें छुड़ा लिया, टेंशन की कोई बात ही नहीं। लेकिन चलो अपने भैया ने दो-चार के हाथ पैर ही तो तोड़े, ख़ुद तो पिटकर नहीं आए, वरना पापा की क्या इज्ज़त रह जाती। सब लोग बोलते अरे इसका बेटा पिटकर आया है।
ये सब सुनकर मेरे होश उड़ गए। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि इस उम्र में ऐसी बातें बनाना इन्होने कहाँ से सीखा ?? आख़िर किसने ये सब बातें इनके दिमाग में डाली ?? इनके सोचने का ढंग तो मासूमियत और निश्छलता से परे है। क्या वाकई ये बच्चे मन के सच्चे कहलाने के लायक हैं। इस संवाद से तो ये कदापि नहीं लगता। अपने बचपन के दिनों को याद करने लगा जब हम कितने भोले-भाले, लाग-लपेट से दूर, सीधे-सादे हुआ करते थे। ऐसी बातें तो हम सपने में भी नहीं सोच सकते थे। आख़िर कहाँ गया वो बचपन ?? वो भोलापन ?? यदि बचपन ऐसा है तो फ़िर जवानी और बुढ़ापे का अंदाज़ा आप ख़ुद लगा सकते हैं। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं, ऐसा सुनता और मानता आया था। मगर ये सब देखकर सोचता हूँ अब भगवान का यह रूप भी सुरक्षित नहीं रहा बाहरी दुनिया के प्रभाव से। हमारे ये नन्हे भगवान कहीं खोते जा रहे हैं। अंत में, बस इतना ही कहना चाहूंगा :
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई ______, कितना बदल गया भगवान (बहुत सोचा पर समझ नहीं आया खाली जगह में क्या लिखूं ?? आप को कुछ सूझे तो बताइएगा ज़रूर)