आज़माइए बर्थडे विश करने का ब्रैंड न्यू, धाँसू मगर जानलेवा तरीका

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

हमारे एक सर हैं, विक्रम सर जो हमारे साथ काम नहीं करते बल्कि ये तो सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी ख़ुशकिस्मती है जो हमें उनके साथ काम करने का मौका मिला है। दिखने में सर एकदम एंग्री यंग मैन टाइप हैं पर हर किसी से प्यार से बातें करना, सारे सहकर्मियों का उत्साह बढ़ाना जैसे गुण उनकी ख़ासियत हैं। और हाँ....... हँसी-मज़ाक के मामले में अपन दोनों की जोड़ी का जवाब नहीं, वो भी जब मज़ाक खुशाल भाईसाहब को लेकर हो। वैसे मुझे तो आज तक ये भी पता नहीं चल पाया कि खुशाल भाईसाहब का सही नाम क्या है, कुशाल, खुशाल, खुशहाल या फ़िर कुछ और.......;-) ख़ैर अपने को इससे क्या लेना-देना हम तो उन्हें भाईसाहब या वीरे कहकर ही बुलाते हैं, सारा झंझट ही ख़त्म।

वैसे नाम से ये भाईसाहब खुशमिजाज़ लगते हैं मगर ज़रा सा मज़ाक किया नहीं कि इनका थोबड़ा सूज जाता है। अच्छा अब खुशाल भाईसाहब की कथा की यहीं इतिश्री करते हैं और वापस मुद्दे पर आते हैं। आगे समाचार इस प्रकार है कि विक्रम सर का जन्मदिन साल में केवल एक ही बार आता है.......;-) और इसका कारण ये है कि साल में १० दिसंबर भी एक ही बार आता है। ये कुदरत का क़ानून है, प्रकृति का अटल नियम है (वैसे मैंने साल में २-३ जन्मदिन वाले बन्दे भी देखे हैं). अब जन्मदिन का उल्लेख किया है तो बधाई भी ऑटोमैटीकली आती ही है। इसलिए सर आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं देता हूँ (ये मेरी तरफ़ से) और अर्ज़ करता हूँ (टपाया हुआ):

उगता हुआ सूरज रोशनी दे तुम्हें,
महकता हुआ चमन खुशबू दे तुम्हें,
हम तो कुछ देने के लायक नहीं,
पर देने वाला हर खुशी दे तुम्हें।


birthday-wishes

अब सर को जन्मदिन की बधाई देते हुए हमनें मस्त शायरी वाली पोस्ट चिपका तो दी है, लेकिन यहाँ दो बातें हो सकती हैं: या तो सर इसे पढ़ेंगे या नहीं पढ़ेंगे। नहीं पढ़ने का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि हमनें उन्हें कल ही बता दिया था कि हम ये कारनामा करने वाले हैं और पढ़ लिया तो फ़िर दो बातें हो जायेंगी: या तो सर को पसंद आएगी या नहीं। अब इतनी अच्छी-अच्छी बातें लिखने के बाद भी पसंद ना आए तो कोई क्या कर सकता है, और अगर पसंद आ गई तो दो बातें हो जायेंगी: या तो सर सबासी देंगे या नहीं देंगे। सबासी देने के लिए सर कोई गब्बर सिंह तो हैं नहीं और अगर सबासी नहीं दी तो फ़िर पोस्ट लिखने का क्या फ़ायदा। इसलिए सर की एक बात पर ग़ौर फरमाता हूँ जो उन्होनें काफ़ी टाइम पहले कही थी, "यार तू सबके बर्थडे कार्ड्स पर पोयम्स लिखता है, एक पोयम मेरे पर भी लिख डाल।"

उस वक्त मेरा जवाब था: "जानी, लिखेंगे और ज़रूर लिखेंगे, आपके बारे में ही लिखेंगे लेकिन सही वक्त आने पर और कागज़ या कंप्यूटर पर ना कि आप पर" और आज लग रहा है कि वो बहुप्रतीक्षित सही वक्त आ पहुँचा है। तो पेश करता हूँ कुछ पंक्तियाँ दिल से, ख़ास आपके लिए सर .......

पहली दफ़ा जब आपको देखा और मिला था मैं,
आपको शायद ठीक से समझ न सका था मैं,
यूँ तो भांप जाता हूँ हर तूफ़ान के खतरों को,
पर इस सुनामी को सूंघ भी ना सका था मैं।

हाँ सुनामी, मगर उसके किताबी अर्थ से उलट,
प्रवाह हो अपने आप में सकारात्मक ऊर्जा का,
रचनाशीलता का, हास्य-व्यंग्य का, विनोद का,
और केंद्रबिंदु मेरी इस हास्य-कविता का।

लेकिन आज आपका जन्मदिन है इसलिए,
आपको बेवजह नाराज़ करने से क्या फ़ायदा,
चलिए एक जादू की झप्पी और ढ़ेरों बधाइयां,
दे देना ठीक होगा, यही कहता है क़ायदा।

अब उपहारों का चलन भी है इस अवसर पर,
तो पेश है एकदम ताज़ी भाजी सी ये कविता,
सुनिए-सुनाइये, पढ़िए, झूमिये और गाइए,
जो कुछ भी करें इसके साथ,है आपकी इच्छा।

वैसे और कितनी तारीफ़ करूँ मैं आपकी,
क्योंकि मेरे लफ्ज़ जवाब देने लग पड़े हैं,
आपके इस विराट व्यक्तित्व के सामने,
मेरे वाक्य छोटे, बहुत छोटे लगने लगे हैं।

पर लोग जो भी कहें आप सच में महान हो,
गुणवान ही नहीं गुणों की पूरी खदान हो,
बलवान हो, पहलवान हो, शक्तिमान हो,
पर सच्ची-मुच्ची सर, आप हमारी जान हो।


आप सभी ब्लॉगर महानुभावों से निवेदन है कि आज सर की लम्बी उम्र की दुआ करने के साथ-साथ मेरी सलामती की दुआ भी करें। और मैं दुआ करूंगा कि सर को कविता पसंद आई हो, पढ़कर सिर्फ़ मुस्कुराए ही ना हों बल्कि हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए हों वरना मुझे शायद आज की छुट्टी लेनी पड़े.......;-)

वैधानिक चेतावनी: कॉपी-पेस्ट करके ऑरकुट, फेसबुक इत्यादि वेबसाइट पर जन्मदिन की बधाई देने वाले महानुभाव अपने रिस्क पर इस पकी-पकाई कविता को स्क्रैप के रूप में निःशुल्क प्रयोग कर सकते हैं लेकिन कविता के कारण हुई किसी भी प्रकार की शारीरिक मरम्मत के लिए लेखक ज़िम्मेदार नहीं होगा ....... :-)

कविता : ऐ हवा कभी तो मेरे दर से गुज़र

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

कभी समंदर किनारे नर्म, ठंडी रेत पर बैठे हुए डूबते हुए सूरज को निहारना ....... और फ़िर यूँ लगे कि मन भी उसी के साथ हो लिया हो। इस दुनिया की उथल-पुथल से दूर, बहुत दूर और पा लेना कुछ सुकून भरे लम्हें ....... किसी पहाड़ी की चोटी पर बने मन्दिर की सीढियां पैदल चढ़कर जाना और दर्शनोपरांत उन्हीं सीढ़ियों पर कुछ देर बैठकर वादी की खूबसूरती को आंखों से पी जाना। बयाँ करते-करते थक जाना मगर चुप होने का नाम न लेना। मगर इन सबके बीच जब तन्हाई आकर डस जाए तो कुछ दर्द के साए उमड़ने लगते हैं और ना चाहते हुए भी ख़्वाबों-ख्यालों का ताना-बाना कुछ इस तरह सामने आता है

dard bhari kavita
ऐ हवा कभी तो मेरे दर से गुजर,
देख कितनी महकी यादें संभाली हैं मैंने,
संग तेरे कर जाने को,
हवा हो जाने को।

ऐ बहार कभी तो इधर भी रुख कर,
देख कई गुलाब मैंने भी रखे थे कभी,
किताबों में मुरझाने को,
पत्ता-पत्ता हो जाने को।

ऐ चाँद थोड़ी चाँदनी की इनायत कर,
कई छाले मैंने भी सजा कर रखे हैं,
बेजान बदन तड़पाने को,
रूह का दर्द छिपाने को।

ऐ चिराग घर में कुछ तो रोशनी कर,
कई बार आशियाँ जलाया है मैंने,
उजाला पास बुलाने को,
अँधेरा दूर भगाने को।

ऐ शाम ना जा, ज़रा कुछ देर ठहर,
अक्सर रात को पाया है मैंने,
तन्हाई मेरी मिटाने को,
दोस्त कोई कहलाने को।

ज़िन्दगी एक आलू का परांठा है

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

अरे रे....... ये क्या, शीर्षक पढ़कर चौंकिए मत। ज़िन्दगी सिर्फ़ एक आलू का परांठा नहीं है, आलू चाहे जितने मर्ज़ी हों पर ज़िन्दगी एक परांठा है, इतना समझ लीजिये। हमने कह दिया तो कह दिया बस। ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को भला कौन जान पाया है आज तक....... यूँ तो बहुतों ने कहा और क्या ख़ूब कहा मगर जनाब अब हमारी बारी है। जब भी ज़िन्दगी क्या है, इसके बारे में सोचता हूँ तो आनंद फ़िल्म में समुन्दर के किनारे "ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाए" गुनगुनाते हुए राजेश खन्ना साहब याद आते हैं....... सामने फ़िल्म चलने लगती है। अब जब मूड बन ही गया है तो इसी बात पर कुछ हमारी तरफ़ से भी नोश फरमाएं.......

ज़िन्दगी एक आलू का परांठा है,
जो वक्त के तवे पर सेका जाता है,
ठीक पके तो स्वाद है भैया,
वरना कच्चा भी रह जाता है।

ज़िन्दगी एक भरा हुआ पैमाना है,
आहिस्ते-आहिस्ते पिया जाता है,
पर होश भी रखना होता है,
वरना जाम छलक ये जाता है।

ज़िन्दगी एक थैली नमक है,
जो चुटकी से डाला जाता है,
ठीक पड़े तो ज़ायका,नहीं तो,
कम-ज्यादा हो जाता है।

ज़िन्दगी एक गर्म कम्बल है,
जो जाड़ों में सबको भाता है,
और गर्मी के आ जाने पर,
बंद सन्दूक में ही सुहाता है।

जिंदगी एक चाय की दुकान है,
जहाँ हर कोई आता जाता है,
कुछ कहता है कुछ सुनता है,
फिर अपनी राह को जाता है।

चलते-चलते आपको याद दिला दूँ कि आज विश्व एड्स दिवस (World AIDS Day) है और एड्स एक लाइलाज बीमारी है, इससे बचकर रहिये, जागरूकता फैलाइये। याद रखिये, एड्स पीड़ित व्यक्तियों को भी सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ जीने का पूरा हक है। एड्स-जागरूकता पर आधारित एक रेडियो कार्यक्रम सुना था काफ़ी पहले, वहीं से ये चार पंक्तियाँ पेश हैं:

सफर ये ज़िन्दगी का सुहाना बहुत है,
नशे में मगर ये ज़माना बहुत है,
अब भी वक्त है संभल जाओ यारों,
बरबादियों का वरना खज़ाना बहुत है।

ग़म का फ़साना मेरा ही है

रविवार, 22 नवंबर 2009

आपको गौरव याद है ना, क्या कहा आपके भाई का नाम है, दोस्त है आपका, आपकी सहेली के हसबैंड हैं....... जी नहीं बिल्कुल ग़लत, गौरव इनमें से कोई नहीं है; गौरव मेरा वो कहानी वाला दोस्त है जिसने मेरे लिए अपनी बुरी आदतों को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था। ये किस्से-कहानियों की दुनिया कितनी अच्छी होती है ना सब कुछ एकदम परफेक्ट....... मगर हक़ीक़त का सामना होते ही सब कुछ बदल जाता है। असल ज़िन्दगी में गौरव क्या पता आपको अब भी सिगरेट पीता हुआ मिल जाए, या फ़िर इससे भी बदतर शराब पीता हुआ। ख़ैर जाने दीजिये दिल का आईना ऐसी कई सच्चाइयों का सामना करता रहता है। दिल को पत्थर का बना कर रखने में भलाई है क्योंकि हक़ीक़त का एक छोटा सा पत्थर भी इस आईने को चकनाचूर कर सकता है....... फ़िर क्या बताएं कि दिल का कोई टुकड़ा यहाँ गिरा कोई वहाँ और इन टूटे हुए टुकड़ों को समेटते हुए कुछ आहें, कुछ सिसकियाँ, कुछ रंज-ओ-ग़म के फ़साने....... ख़ुद ही देख लीजिये.......

जब आसमान पर यदा-कदा,
काली बदली सी छाती है,
और विचारों की आंधी से
दिल की खिड़की खुल जाती है,
दस्तक देता है कोई,
इक बिजली कौंध सी जाती है,
कुछ दर्द उबलने लगते हैं,
और इक कविता बन जाती है।

जब अँधेरी उन गलियों में,
सन्नाटा पसरा होता है,
और दूर-दूर तक वादी में,
ग़म का कोहरा होता है,
तब स्याह उजालों में मेरी,
परछाई खो सी जाती है,
कुछ दर्द सिसकने लगते हैं,
और इक कविता बन जाती है।

जब चलता हूँ मैं दूर तलक,
और कोई साथ नहीं होता,
वादे तो काफ़ी होते हैं,
हाथों में हाथ नहीं होता,
तब बीते उन सब लम्हों की,
याद बड़ी तड़पाती है,
कुछ ज़ख़्म बिलकने लगते हैं,
और इक कविता बन जाती है।

जब हँसते है दुनिया वाले,
मैं भी हंसकर दिखलाता हूँ,
चेहरे की उसी बनावट में,
अपने ग़म को झुठलाता हूँ,
जब किसी खुशी के मौके पे,
आँखें साग़र छलकाती हैं,
कुछ मोती ढलने लगते हैं,
और इक कविता बन जाती है।

मुझे नींद न आए से लेकर स्वाइन फ्लू तक

बुधवार, 18 नवंबर 2009

आजकल हमने न जाने ये कौन सा शौक़ पाल रखा है.......देर रात तक जागने का। पता नहीं कमबखत मारी ये नींद रात होते ही किस पाताल में जाकर छिप जाती है, भगवान ही जाने। हां दिन के समय जब ऑफिस में काम करते हैं तो घड़ी-घड़ी "मे आई कम इन सर" कहती रहती है। सर आप कर लीजिये थोड़ा आराम, बाकी तो होता ही रहेगा काम.......जैसी लुभावनी पंचलाइन के पंच मारती रहती है, इस उम्मीद में कि कभी तो मैं नॉक-आउट होकर गिर जाऊं और मनाये वो मुझपे अपनी जीत का जश्न। मगर हम कहाँ मानने वाले हैं, अगर वो शेर तो हम सवा शेर की तर्ज़ पर गड़ाए रहते हैं नज़रें अपने कंप्यूटर पर, मजाल है कि पलक भी झपक जाय। बिल्ली-झपकी (cat-nap) तक भी नहीं लेते हैं। ठंडे पानी के छींटों से हमला करते हैं, चाय के प्यालों को चुस्कियां लेकर पीते हैं, और कभी-कभार चेहरे पर दो चार थप्पड़ों की बारिश.......नींद भी भगाए और चेहरे पर लाली भी लाए.......

पर मेरी इन कारस्तानियों से नाराज़ होकर नींद कहती है बच्चू अभी हंस ले मेरी बेबसी पर, मज़ा चखाती हूँ तुझे रात में, आज तू सोकर दिखा। तू थर्ड फ्लोर पर रहता है न, देखियो मैं कैसे ग्राउंड फ्लोर पे जाकर बैठती हूँ, आ जाइयो तब मुझे मनाने। अब नींद को ये कौन समझाए कि ऑफिस में सोना किसी भी लिहाज़ से सही नहीं है। एक तो नौकरी से निकाले जाने का डर, निकाले ना भी जाएँ तो इज्ज़त को खतरा। अब "अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम" वाली बात इंसानों पर थोड़े ही लागू होती है जो हम नौकरी से निकाले जाने का खतरा मोल लें। वरना सोने के मामले में तो अपना एक ही उसूल है:

किस-किस को याद कीजिये, किस-किस को रोइए; आराम बड़ी चीज़ है, मुंह ढक के सोइए।

आजकल सर्दियों की रातें एक तो वैसे ही लम्बी होती हैं, ऊपर से ये नींद ना आना.......रात आख़िर काटी जाय तो कैसे। लगता है इस पर थोड़ा रिसर्च वर्क करना होगा, तब कहीं जाके बात बनेगी। अब गर्मी के दिन हों बात अलग है कि तारे वगैरह गिनो और रात काटो। इतनी सर्दी में बाहर तारों की छाँव में सोना तो खांसी, ज़ुकाम, नजला, बुखार आदि-आदि बीमारियों को न्योता देना है। ऊपर से आजकल स्वाइन फ्लू का चक्कर अलग, ज़रा सा खांसा या छींका नहीं कि सामने वाले डर के मारे ग़ायब। अब इन्हें भी कौन समझाए कि जैसे हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती, वैसे ही हर खांसी-ज़ुकाम स्वाइन फ्लू नहीं होता। वैसे सावधानी रखने में कोई हर्ज़ नहीं, मगर ये कोई बात थोड़े हुई कि आई छींक और पहुँच गए हस्पताल स्वाइन फ्लू चिल्लाते हुए आजकल चंडीगढ़ का यही हाल है। पूरी जानकारी के अभाव में हर कोई परेशान है, तो हमने सोचा अब नींद नहीं आ रही तो स्वाइन फ्लू की जानकारी ही लोगों तक पहुँचा दें, किसी का तो भला हो :-

स्वाइन फ्लू के लक्षण: स्वाइन फ्लू के लक्षण बिल्कुल सामान्य एन्फ्लूएंजा के लक्षणों जैसे ही होते हैं। बुखार (100.4°F तक), तेज ठंड लगना, नाक बहना, तेज सिरदर्द होना, खाँसी आना, गला खराब हो जाना, मांसपेशियों में दर्द होना, कमजोरी महसूस करना, उलटी, डायरिया आदि इनमें प्रमुख हैं। पीड़ित व्यक्ति में इनमें से कम से कम तीन लक्षण ज़रूर दिखायी देते हैं।


संक्रमण: संक्रमित व्यक्ति का खाँसना और छींकना या ऐसे उपकरणों को स्पर्श करना जो दूसरों के संपर्क में भी आते हैं जैसे घर-ऑफिस के दरवाजों, खिडकियों के हेंडल, कीबोर्ड , मेज, टेलीफोन के रिसीवर या टॉयलेट के नल इत्यादि।

सावधानियाँ: चूंकि स्वाइन फ्लू महज़ एन्फ्लूएंजा A H1N1 वायरस है, इसलिए इस वायरस के संक्रमण के दौरान सामान्य एन्फ्लूएंजा के दौरान रखी जाने वाली सभी सावधानियाँ रखी जानी चाहिए। लगातार अपने हाथों को साबुन या ऐसे सॉल्यूशन से धोएं जो वायरस का ख़ात्मा कर देते हैं। नाक और मुँह को ढँकने के लिए मास्क का प्रयोग करें। इसके अलावा जब ज़रूरत हो तभी आम जगहों पर जाएँ ताकि संक्रमण ना फैल सके। डिहाड्रेशन से बचने के लिए पानी पीते रहें।

इलाज: संक्रमण के लक्षण प्रकट होने के ४८ घंटे के भीतर ही डॉक्टरी सलाह पर एंटीवायरल ड्रग जैसे कि oseltamivir (Tamiflu) और zanamivir (Relenza) देना जरूरी होता है। इससे मरीज को राहत मिलने के साथ-साथ बीमारी की तीव्रता भी कम हो जाती है। मरीज को तुरंत किसी अस्पताल में भर्ती कर दें ताकि पैलिएटिव केअर शुरू हो जाए और तरल पदार्थों की आपूर्ति भी पर्याप्त मात्रा में होती रह सकें।

तो लीजिये कर दिया हमने आपको स्वाइन फ्लू से आगाह, बदले में सिर्फ़ आपकी अच्छी सेहत और हमें नींद आ जाए इसकी दुआ करते हैं। अब जब हमने अपना ज्ञान-पिटारा खोल ही दिया है तो बताय देते हैं कि नींद न आना भी एक बीमारी है और इसे इनसोम्निया कहते हैं। वैसे इतनी सारी बीमारियाँ देखकर तो एक ही ख़याल आता है:

कुछ बात और दिनों की है,
जब राम यहाँ पर बसते थे,
अब एक छींक आ जाए तो,
सब स्वाइन फ्लू चिल्लाते हैं।

लगता है निंदिया रानी मेहरबान हो ही गई, पोस्ट को सुबह छपने के लिए लगाते हैं और कविता को फ़िर-कभी फुर्सत में निबटायेंगे.......

भाई साहब की फ़रमाइश पर वीर रस की कविता

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

काफ़ी दिनों की मसरूफ़ियत के बाद आज आपसे रू--रू होने का मौका मिला है....... बीच में काफ़ी कुछ निकल गया, पूरा अक्टूबर बिना कोई पोस्ट लिखे ही बीत गया। इसी बीच हमारे एक भाई साहब ने कहा लिखते-विखते हो, तो एक कविता वीर रस की भी लिख डालो। अब इस पर हमने तो साफ़-साफ़ कह दिया कि भैया जी हम तो बस मन के मारे लिखते हैं, काव्य-कर्म की कोई ख़ास समझ नहीं है...... इसलिए बस एक कोशिश ही कर सकते हैं।

खींच कर आकाश धरती पर झुका दो साथियों,
चीर सीना पर्वतों का गंगा बहा दो साथियों;
कांप उठे दश दिशायें एक ही हुंकार से,
भींच कर प्राणों को रणसिंघा बजा दो साथियों।

चल पड़ो तो कोई अड़चन राह में आए नहीं,
अड़चनों को राह से हटना सिखा दो साथियों;
कामयाबी ख़ुद--ख़ुद चूमे क़दम दोस्तों,
मंज़िलों को यार अपना तुम बना दो साथियों।

मैदान में गर डट पडो, रण छोड़ बैरी भाग लें,
तुम अडिग हो ये हिमालय को दिखा दो साथियों;
डरना नहीं फितरत तुम्हारी और ना ही कांपना,
डर को भी अपने नाम से डरना सिखा दो साथियों।

मानकर श्रम-स्वेद को ही अपने मस्तक का मुकुट,
मिट्टी में डालो हाथ तो सोना उगा दो साथियों;
रहने अब पाये कोई धरा बंजर कभी,
पत्थरों के भी हृदय में सुमन खिला दो साथियों।

भेद-भाव को दूर भगाकर समरसता फैलानी है,
भाव ये जन-जन के मन में तुम जगा दो साथियों;
तोड़ कर इस जाति, भाषा, धर्म की ज़ंजीर को,
मानवता को धर्म अपना तुम बना दो साथियों।

हिन्दी दिवस कैसे मनायें ??

सोमवार, 14 सितंबर 2009

आज १४ सितम्बर है, १४ सितम्बर यानी कि हिन्दी दिवस इस दिवस के महत्त्व एवं इतिहास के बारे में आपको बताने की शायद ही ज़रूरत होगी। पर इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि उड़नतश्तरी जी के ब्लॉग पर लिखी इन पंक्तियों पर गौर फ़रमाएँ.......

"आप हिन्दी में लिखते हैं. आप हिन्दी पढ़ते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की च्ची सेवा है. एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें."

कितने सरल शब्दों में कितनी अच्छी बात कह दी गई है इन पंक्तियों में, और मेरे ख़याल से अगर हिन्दी दिवस पे ज्यादा कुछ ना करके सिर्फ़ इन्हीं बातों पर ध्यान दे दिया जाए तो हम हिन्दी भाषा के प्रसार में अपना एक छोटा सा ही सही लेकिन अहम योगदान दे सकेंगे। याद रखिये अगर हम सभी ये सोचकर कि एक हमारे कुछ ना करने से क्या फरक पड़ेगा तो "राजा की दूध वाली बावड़ी सुबह जिस तरह पानी से भरी मिली थी" कुछ वैसा ही हाल हो जाएगा। इसलिए इस मामले में हमें उस नन्हीं गिलहरी से सीख लेनी चाहिए जिसने भगवान राम की लंका पर चढ़ाई करते समय पुल बनाने में मदद की थी और जुट जाना चाहिए अपने प्रयासों में। "जहाँ चाह, वहाँ राह" और "कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों" वाली बातें यूँ ही नहीं कही गई हैं।

जन्म से ही अपना नाता हिन्दी से चोली-दामन का सा रहा है। हाँ १२ वीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए हिन्दी से कुछ समय तक दूरी रही, मगर "अपना तो दिल ही कुछ ऐसा है कि हिन्दी के बिना गुजारा नहीं"। सो अब हिन्दी में ब्लॉग लिखकर रही-सही कसर निकालते हैं। बचपन में जब तीसरी या चौथी कक्षा में थे, तो सामान्य ज्ञान में पढ़ते थे कि १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। उस समय ज्यादा कुछ पता तो था नहीं इसलिए बस याद कर लेते थे, १४ सितम्बर यानी हिन्दी दिवस, बाकी कुछ अता-पता नहीं। वैसे भी स्कूलों में हिन्दी दिवस कहाँ मनाया जाता है और ये तो गनीमत है कि मैंने तो हिन्दी दिवस का नाम भी सुन रखा था, मेरे हमउम्र कई बच्चों ने तो उस समय हिन्दी दिवस का नाम भी नहीं सुना होगा। खैर छोड़िए, सोचने वाली बात ये है कि जब हम आबादी में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आते हैं, तो इस लिहाज से हिन्दी जो कि हमारी राष्ट्रभाषा और राजभाषा है, चीनी भाषा मंदारिन के बाद दूसरे स्थान आनी चाहिए, मगर ऐसा है नहीं। आख़िर क्यों?? जवाब हम सभी को पता है। इसलिए भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी की इन पंक्तियों को शिरोधार्य मानकर आज, अभी, इसी वक्त से कमर कस लीजिए:

निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे हिय को शूल।।

अंत में शास्त्री जी की बात पर भी अमल कीजिए:
"हिन्दी हमारी मातृभाषा है; मात्र एक भाषा नहीं। सिर्फ़ हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है।"

चलते-चलते हमसफ़र यादों का....... की तरफ़ से आप सभी को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!!!

हमसफ़र यादों का : पढिये एक नए रंग-रूप में

शनिवार, 29 अगस्त 2009

आज के दिन इस ब्लॉग को शुरू किये हुए ठीक ४ माह एवं ५ दिन का समय हो चला है। दिनांक २४ अप्रैल, २००९ को हमसफ़र यादों का....... की शुरुआत करते हुए मन में कुछ दुविधाएं एवं शंकाएं थी, जिनका समाधान अपनी पहली पोस्ट लिखने पर ही हो गया था। ये सब आपके प्रेम एवं शुभाशीष का ही नतीज़ा है कि मैं आज भी लिख रहा हूँ, और लिखता रहूँगा और मेरी ये कोशिश हमेशा रहेगी कि इस ब्लॉग को बेहतर कैसे बनाया जाए। इसी कड़ी के तहत आज हमसफ़र यादों का....... को नए कलेवर में आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ, इस उम्मीद के साथ कि आपको पसंद आएगा। परिवर्तन संसार एवं प्रकृति का नियम है और ये परिवर्तन अगर अच्छे के लिए हो तो क्या कहने। जीवन में बदलाव एवं गतिशीलता बहुत मायने रखती है। स्वामी रामतीर्थ ने भी कहा था - "बहता हुआ जल सदा स्वच्छ और निर्मल रहता है जबकि रुका हुआ पानी सड़ने लगता है और बदबू देता है, इसलिए जीवन में सदैव गतिशील बनो"। इसलिए रंग-रूप का ये बदलाव ज़रूरी था। आइये देखें २४ अप्रैल से अब तक क्या क्या परिवर्तन हुए हैं इस ब्लॉग में:

  • २४ अप्रैल, २००९ : ब्लॉग का शुभारम्भ
  • २४ मई, २००९ : ब्लॉग को मिली १ पेजरेंक
  • २४ जून, २००९ : ब्लॉग की पेजरेंक बढ़कर हुई २
  • २४ जुलाई, २००९ : ब्लॉग की पेजरेंक २ पर कायम
  • २९ अगस्त, २००९ : ब्लॉग एक नए अवतार में
  • कुल मिलाकर १२५ दिनों में २५ पोस्ट (यानी हर ५ दिन में एक पोस्ट)
और हाँ एक ख़ास बात बताना तो मैं आपको भूल ही गया, आज की ये पोस्ट इस ब्लॉग की सिल्वर जुबिली पोस्ट है। इसलिए कुछ हटके तो होनी ही चाहिए। तो आज अपनी एक कविता के द्बारा मिलवाता हूँ आपको यादों के इस हमसफ़र से। २ महीने पहले यूँ ही लिखी ये कविता आज प्रस्तुत करने का मौका मिला है। भाव थोड़े नकारात्मक ज़रूर हैं मगर दिल के दर्द को बयान करने का अच्छा बहाना है.......

यादों और सिर्फ़ यादों का हमसफ़र हूँ मैं,
जानता हूँ सारी दुनिया को मगर,
अपनी असल पहचान से बेख़बर हूँ मैं।
दिन और शाम से कोई वास्ता नहीं मेरा,
रात का अलसाया आखिरी पहर हूँ मैं।
ग़ज़ल इस तरह रूठ बैठी है मुझसे,
जैसे भटका हुआ कोई बहर हूँ मैं।
अपनी हस्ती दरिया, समंदर सी नहीं,
छोटी लेकिन बही जा रही एक नहर हूँ मैं।
ज़िन्दगी का नहीं कोई नामो-निशाँ बाकी,
सिर्फ़ मुर्दों और कब्रों का शहर हूँ मैं।
गिरके बस ख़ाक होने ही तो वाली है,
कहने को इमारत, असल में इक खंडहर हूँ मैं।
यादों और सिर्फ़ यादों का हमसफ़र हूँ मैं।

कविता : इन्सां मगर क्यों खो रहा है ?

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

राष्ट्र विकसित हो रहा है, मन तरंगित हो रहा है;
मिल जायेंगे पुतले बहुत, इन्सां मगर क्यों खो रहा है

स्वप्न देखे जो सुनहरे, दूर के थे ढोल सारे;
पास जाकर अब है जाना, लाख कुंदन हो रहा है।

रक्षा करेगा कौन सोचो, रक्षक ही भक्षक हो रहा है;
माली जलाए बाग़ को, तो नाव माझी डुबो रहा है।

रिश्ते सभी अब नाम के हैं, स्नेह बंधन खो रहा है;
आँख में आँसू सभी के, पर हृदय किसका रो रहा है।

एक तरफ़ है दौलत-शोहरत, एक ओर है लाचारी;
कोई पड़ा रंगीनियों में, कोई सड़क पर सो रहा है।

भगवान तेरा हर इक बन्दा, कर रहा है गोरख-धंधा;
फ़िर जा रहा हरिद्वार-काशी, पाप अपने धो रहा है।

चाहता खातिर-तवज्जो, दूसरों की नहीं ख़ुद की;
खुद आम खाने की तमन्ना, बबूल-कीकर बो रहा है।

कविता : रिश्तों का सूखा सावन

सोमवार, 10 अगस्त 2009

ये बारिश मुझे कुछ याद दिलाती है,
यादें उन दिनों की, उन बीते लम्हों की,
जब हुआ करती थी बेफ़िक्री मन में,
चटकती थीं कलियाँ वन-उपवन में,
सावन भी झूम-झूम आता था और,
सबकी प्यास बुझे इतना पानी बरसाता था।

मगर अब तो सावन कहाँ आता है,
बस आने की उम्मीद में तरसाता है,
कब आया और चला गया नहीं मालूम,
बचा है बस औपचारिकताओं का हुजूम,
वक्त नहीं किसी को बाट उसकी जोहने का,
सावन का काम नहीं अब मन मोहने का।

गुज़र चुका जो वक्त वो लौटाऊँ कैसे,
वो सावन का आकर्षण वापस लाऊँ कैसे,
सूखे दिल, सूखी अँखियाँ, रिश्तों में भी सूखापन है,
सूखे सुमन, सूखी कलियाँ, सूखा-सूखा मन-उपवन है,
सोचता हूँ सूखेपन की बारिश से छिपकर,
इन सावनी फुहारों में भीग जाऊं कैसे।

मित्र दिवस : लघुकथा

रविवार, 2 अगस्त 2009

क्या हुआ आज ?? मिली कोई जॉब...?? कमरे में लेटे हुए सुशांत ने गौरव से आते ही पूछा......नहीं यार.....उन्हें सिर्फ़ एक्सपीरियंस वाले बन्दे चाहिए.....नो फ्रेशर्स.....गौरव ने लटके हुए चेहरे के साथ जवाब दिया और सिगरेट जलाने लगा......अब क्या करें यार मार्केट का बहुत बुरा हाल है......और इन कंपनियों की चालबाजी ऊपर से.....रिसेशन के नाम का अच्छा इस्तेमाल कर रही हैं.....पर तू हिम्मत मत हार.....ट्राई करता रह.....और हो सके तो यार ये सिगरेट छोड़ दे, तुझे मैंने कितनी बार कहा है कि मुझे सिगरेट और सिगरेट पीने वालों से कितनी नफ़रत है, सिगरेट का धुंआ मेरे से बर्दाश्त नहीं होता....गौरव की सिगरेट की लत से सुशांत बहुत परेशान था.....और हो भी क्यों न, चार साल से साथ रह रहे दोस्त को उसने कभी कोई नशा करते नहीं देखा था, मगर अचानक से जॉब ढूंढते-ढूंढते उसका हौंसला ऐसा टूटा कि न जाने कब वो इस नशे की गिरफ्त में आ गया, उसे ख़ुद पता नहीं चला......

सुशांत जानता था कि गौरव का आत्मविश्वास थोड़ा सा डगमगा गया है जिसके कारण वो मायूसी और सिगरेट का शिकार हो रखा है। अगर किसी तरह उसका ये आत्मविश्वास वापस लौट आए तो कुछ बात बने.....मगर कैसे?? उसके सामने यही एक सवाल मुंह बाए खड़ा था। यही सोचते-सोचते सुशांत बीते दिनों की यादों में खो गया......किस तरह एडमिशन के टाइम पे वो गौरव से पहली बार मिला था, मगर जब कॉलेज में गौरव उसके सामने आया तो वो उसे पहचान ही नहीं पाया था। जब गौरव बोला यार हम लोगों ने एडमिशन एक साथ लिया था, तब कहीं जाकर उसे कुछ धुंधला सा याद आया था। पता नहीं कितनी यादें, बातें और किस्से जो दोनों ने साथ में जिये थे। और फ़िर याद आया उसे अपना वो वक़्त जब वो पूरी तरह से टूट चुका था......फर्स्ट सेमेस्टर के एक्जाम्स में चारों सब्जेक्ट में फेल होने के बाद तो उसे अपना कोई भविष्य ही नहीं दिख रहा था। घोर निराशा के जाल में फंसकर रह गया था। तभी गौरव की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा, खाना नहीं खाना है क्या आज..........?? हाँ, खाना तो है, चलो चलें।

खाना खाकर दोनों बैड पर लेट गए......कमरे में मद्धम रौशनी थी.....सुशांत ने कहा आज मनोहर का फ़ोन आया था.....अच्छा, क्या बोल रहा था, हुई उसकी ऍम बी ए क्लासेस स्टार्ट....हाँ, तो क्लासेस तो चालू हैं.....चलो यार वो तो अच्छी जगह पहुँच गया, अपना पता नहीं क्या होगा, गौरव ने आह भरते हुए कहा। हो जाएगा यार, तू बस टेंशन मत ले, वैसे अपने कॉलेज के दिन भी कितने मस्त थे ना.....सारे दोस्त बहुत याद आते हैं। क्या लाइफ थी यार.....बस मस्ती ही मस्ती......कॉलेज के पहले-पहले दिनों में रैगिंग का खौफ़......फ़िर फ्रेशर्स पार्टी और सीनियर्स से दोस्ती.....कॉलेज की बातें सुनकर गौरव के चेहरे पर आई हल्की सी चमक सुशांत से छिपी नहीं थी। कितने दिनों बाद उसने उसके चेहरे पर खुशी देखी थी। ख़ैर अब गौरव की बारी थी। वह बोल पड़ा......हाँ यार, क्या दिन थे.....क्लासेस बंक करना, सारे सेमेस्टर मस्ती और फ़िर पेपर्स के टाइम मार्क्स के लिए ज़द्दोज़हद, रातों को जागना, मैगी पकाना......फुल्टू ऐश मगर रिजल्ट और मार्क्स से नो कोम्प्रोमाईज....

अच्छा गौरव, तुझे मेरा सुसाइड के बारे में सोचने वाला सीन याद है,सुशांत ने कहा......हाँ यार, तेरी वो नादानी कैसे भूल सकता हूँ......फर्स्ट सेमेस्टर तेरा लटक गया था तो तू देवदास बन गया था। ना किसी से बात करना, ना कॉलेज जाना, बस गुमसुम रहना.....हमनें कितनी बार तुझे समझाने की कोशिश की, कितनी कड़वी बातें कहीं तब कहीं जाकर तू माना.....मैं भी अब उस बारे में सोचता हूँ तो अपनी बेवकूफी पर हँसी आती है, सुशांत बोला......ना ही फेल होने से ज़िन्दगी खतम हो जाती है, और ना ही जॉब ना मिलने से......क्यूँ गौरव मैं ठीक बोल रहा हूँ न.....गौरव कुछ बोल न सका। सुशांत ने आगे कहा, मुझे तेरी दोस्ती पर नाज़ है, अगर उस वक्त तू ना होता तो मैं तो काम से गया था। तेरी दोस्ती ने मुझे जीना सिखाया है दोस्त। याद है मुझे वो थप्पड़ जो तूने सुसाइड की बात पर मारा था। मगर मुझे अपने आप पर शर्म आ रही है जो मेरे होते हुए भी तू इस सिगरेट, नशे और मायूसी में डूबा है। मैं तुझे इस हाल में नहीं देख सकता दोस्त, इससे अच्छा तो मैं मर ही जाता।

सुशांत के ये शब्द सुनकर गौरव चिल्लाया.......ख़बरदार जो मरने की बात की तो, एक थप्पड़ और मारूंगा......घूमेगा फ़िर लाल-लाल मुंह लेकर.......इतना कहकर गौरव सुशांत के गले लग गया और फ़िर उन दोनों की आंखों से निकले आंसुओं ने सारे अवसाद बहा डाले.....गौरव सुबकते हुए बोला मुझे माफ़ कर दे यार, मैं भटक गया था लेकिन आज तूने मुझे सही रास्ता दिखा दिया है, मेरी आँखें खुल गई हैं। आज से ये मायूसी भरी बातें और ये सिगरेट बंद और इतना कहकर उसने सिगरेट का पैकेट खिड़की से बाहर फेंक दिया। सुशांत के चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान थी आख़िर उसका खोया हुआ दोस्त फ़िर से मिल गया था।

अंत में,
आप सभी को मित्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.........

स्मृति के झरोखों से: कारगिल विजय दिवस

रविवार, 26 जुलाई 2009

आज ही का दिन तो था, जब सारा देश जीत की खुशी से ज्यादा अपने सपूतों को खोने के ग़म में डूबा हुआ था। यकीन ही नहीं आता कि उस बात को बीते एक दशक हो चुका है, लेकिन आज भी अगर हर हिन्दुस्तानी का मन टटोला जाए तो उस बात के निशान बिल्कुल ताज़ा ही मिलेंगे। एक लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी वो यादें अनायास ही आंखों को भिगोने के लिए काफ़ी हैं। अब अगर युवापीढ़ी की बात करें तो मुझे नहीं लगता ५ या १०% से ज्यादा को इस बात की भनक भी होगी, खैर छोड़िए इस बात को क्योंकि अगर मैंने " इसे दुर्भाग्य कहें इस देश का या पश्चिमी सभ्यता का असर, जहाँ वैलेनटाइन्स डे का तो हर नवयुवक और नवयुवती को पता है मगर इस ख़ास दिन के बारे में उन्हें याद दिलाना पड़ता है" ऐसा कुछ कह दिया तो मेरे एक मित्र जो मेरे इन विचारों को दकियानूसी बताने से बाज़ नहीं आते, इस बार भी टीका-टिप्पणी करने से नहीं चूकेंगे। इसलिए चुपचाप बता देने में ही भलाई है कि हम बात कर रहे हैं २६ जुलाई यानी कारगिल विजय दिवस की जो १९९९ के कारगिल युद्ध में अपना बलिदान देने वाले सैनिकों की स्मृति में हर साल मनाया जाता है।

४६४ जवानों ने देश की सीमाओं के भीतर घुस आए दुश्मन को मुंह-तोड़ जवाब देते हुए जिस अदम्य साहस, शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए अपने प्राण न्यौछावर किए, उसे हम लफ्जों में बयाँ तो नहीं कर सकते, हाँ उस जज़्बे को सलाम ज़रूर कर सकते हैं। आज भी जब उस समय का ज़िक्र चलता है तो याद आते हैं कारगिल, द्रास, बटालिक और मुश्कोह घाटी जैसे स्थान। याद आती हैं टाईगर हिल, तोलोलिंग, पिम्पल काम्प्लेक्स जैसी पहाडियाँ। याद आते हैं मनोज पाण्डेय, विक्रम बत्रा, संजय कुमार, सौरभ कालिया जैसे नाम। किस तरह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर असम तक फैला यह देश अपने इन वीरों की सलामती की दिन-रात दुआएं मांगता था, ये भी याद आता है। कैसे जब किसी सैनिक का तिरंगे में लिपटा हुआ ताबूत आता था तो सारे इलाके में शोक की लहर दौड़ जाती थी। धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सिर्फ़ एक ही भाव प्रबल था : देशप्रेम। काश! ये भाव ही चिरस्थायी प्रबल रहे तो कितना अच्छा हो.......

कितनी ही माँओं ने अपने बच्चे खोये, कितनी स्त्रियों ने अपने सुहाग, कितनी बहनों ने राखी बंधवाने वाली कलाइयां, पिताओं ने अपने कलेजे के टुकड़े, क्यों ? इस देश की खातिर, इसके अमन-चैन की खातिर, इस तिरंगे की खातिर, हम सब की खातिर; और अगर हम ही उनकी कुर्बानी को भुला बैठेंगे तो इससे बड़ी कृतघ्नता और क्या होगी ?? उन्होनें इस महायज्ञ में अपनी आहुतियाँ इसलिए नहीं दी कि हम उसे धुंआ बनकर उड़ जाने दें और कहीं खो जाने दें। इसलिए हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हमें उन्हें उस खुली हवा में महसूस करें जिसमें हम साँस लेते हैं, उन बहारों-फिजाओं में महसूस करें जिनका हम आनंद लेते हैं, अपनी हर खुशी में महसूस करें, अपने हर जश्न में शरीक करें और मेरे हिसाब से यही इन वीरों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

अंत में.......
जो योद्धा लड़ाई के मैदान में प्राण विसर्जन करता है उसकी मृत्यु के लिए शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि वह स्वर्ग में सम्मानित होता है - कारगिल युद्ध स्मारक, द्रास

उपयोगी कड़ी: ज्यादा जानकारी के लिए आप कारगिल युद्ध पर आधारित भारतीय सेना की आधिकारिक वेबसाइट देख सकते हैं।

कविता : सपूत

रविवार, 12 जुलाई 2009

कुछ समय पहले गौतम राजरिशी जी के ब्लॉग पर "मेजर ऋषिकेश रमानी - शौर्य का नया नाम" पोस्ट पढ़ी थी जिसे पढ़कर सीमा पर डटे अपने इन वीर जवानों के प्रति श्रद्धा भाव और बढ़ गया। साथ ही सरकार और मीडिया की अनदेखी से जुड़ी कुछ कड़वी सच्चाइयां भी सामने आई। इन्हीं सब मनोभावों से जन्मी यह कविता आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। और एक ख़ास बात आप सभी पाठकों से....... कृपया सर, महोदय जैसे संबोधनों का प्रयोग ना करें, यकीन जानिए मैं उम्र और अनुभव में आपसे बहुत छोटा हूँ, इसलिए आपसे स्नेह की ही आकांक्षा रखता हूँ.......

आँख नम है, सर झुका है,
वो चला जा रहा है देखो,
किसी माँ का लाड़ला इक,
चार कांधों के सहारे।
जी चुका जो पूर्ण जीवन,
छा रहा था किंतु यौवन,
देश की सीमा पे जिसने,
कर दिया तन-मन समर्पण।

रह गया जो याद बनकर,
स्मृति चिन्हों में उतरकर,
लड़ गया ख़ुद ही अकेला,
कर्तव्य सर-माथे पे रखकर।
देश को ही बहन माना,
देश को ही माँ समझकर,
देश की रक्षा को जिसने
कर दिए पण-प्राण अर्पण।

माँ अकेली रो रही है,
बहन भी बेसुध पड़ी है,
थे पिता के कितने सपने,
एक विधवा भी खड़ी है।
आज धरती ने भी अपना,
इक सपूत खो दिया है,
हवा भी खामोश चुप है,
गूंजता सिर्फ़ करुण क्रंदन।

लिपटा हुआ तिरंगे में वो,
पुष्पमाला सज चुकी है,
तारीफ़ के पुल बांधते सब,
२१ तोपें बज चुकी हैं।
कुछ समय में पदक देकर,
सब भुला बैठेंगे उसको,
पर नहीं भूलेगा उसको,
देश की माटी का कण-कण।

दिल-ए-नादाँ की उदासी

सोमवार, 29 जून 2009

इस हफ्ते अति व्यस्तता के चलते ब्लोग्स को ज्यादा समय नहीं दे पाया और आने वाला सप्ताह भी कुछ ऐसे ही जाने के संकेत हैं, इस वजह से माफ़ी चाहूंगा। बारिश ने जब देश के कई इलाकों में अपनी कृपा दृष्टि के परिणामस्वरुप जल-वृष्टि की है, चंडीगढ़ अभी भी सूखे की मार झेल रहा है। मौसम से लेकर मिज़ाज़ तक में कुछ भी नया-ताज़ा न होने की सूरत में इस बार एक पुराना गीत ही पेश-ए-खिदमत है, जो यहाँ भी छप चुका है .......

दिल-ए-नादाँ जब कभी भी उदास होता है,
एक अजनबी सा शख्स मेरे पास होता है;
ज़िंदगी की इन तेज़ रफ़्तार घड़ियों में,
वो लम्हा वो पल कुछ ख़ास होता है.

सुबह का सूरज दिन भर तपकर,
शाम तक बूढा हो जाता है;
दरिया में डूबते डूबते अपनी छाप,
मेरे कच्चे मन पर छोड़ जाता है.
उसके इस चलन में मुझे,
अपनी जलन का एहसास होता है.
दिल-ए-नादाँ ....................

रात की रानी अपनी बाहों के आगोश में,
हौले से जग को भर लेती है;
नींदें मेरी उड़ जाती हैं पंख लगाकर,
सपनों की आहट ही कहाँ होती है.
मैं और मेरी तन्हाई के इस मंज़र का,
खामोश गवाह केवल आकाश होता है.
दिल-ए-नादाँ .......................

ज़िंदगी दर्द भरी दवा लगने लगी है,
कड़वी बद्दुआ भी अब दुआ लगने लगी है;
समंदर भी शर्म से सर झुका लेता है,
अश्कों की धारा अब दरिया लगने लगी है.
बहारों के मौसम में भी जाने क्यों,
पतझड़ का सा आभास होता है.
दिल-ए-नादाँ ..................

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ब्लॉगर के मन का संदेश : लक्ष्य-प्राप्ति कैसे ??

बुधवार, 24 जून 2009

मेहरबान, कदरदान, साहिबान....... आज तो अपना ब्लॉग भी कुछ चमक रहा है....... कैसे ?? ज़रा दायीं तरफ़ खोजबीन बक्से के ठीक नीचे देखिये....... मिला कुछ ?? जी हाँ, ये सब आपके प्यार-दुलार, स्नेह एवं आशीष का नतीजा है जो इतने कम समय में इस मुकाम तक पहुंचा हूँ मगर ये कोई मंज़िल नहीं महज़ एक सफ़र की शुरुआत है, ऐसा मेरा मानना है. यादों के इस हमसफ़र का यहाँ तक बखूबी साथ निभाने के लिए शुक्रिया, करम, मेहरबानी.......ब्लॉगर मन की व्यथा का आपकी प्रतिक्रियाओं ने सही समाधान निकाला. अब तो "कर्म किया जा, फल बहुत महंगे हैं इसलिए उनके बारे में तो सोच भी मत" ही अपना नारा है. वैसे यह सफ़र बहुत लम्बा चलने वाला है, ऐसे शुभ संकेत तो मिल ही गए हैं और भगवान करे ये सफ़र यूँ ही चलता रहे, कभी ख़त्म ना हो ....... इसी बात पर ब्लॉगर के मन का सन्देश भी कुछ यूं है :

जीवन में इक लक्ष्य अगर है तुमको पाना,
रखना थोड़ा धैर्य और चलते ही जाना;
पथ की चिंताएं सब खुद ही मिट जायेंगी,
चिंता छोड़ हमेशा चिंतन को अपनाना।

पंथ लगेगा दीर्घ बहुत, आरम्भ यही है,
पार मिलेगा सही, कहीं पर रुक ना जाना;
मिलकर काँटों का आभार प्रकट करना तुम,
काँटें, बनकर पुष्प हृदय, अपनाते जाना।

मिले ख़ुशी तो बाँट दूसरों को दे देना,
ग़म को भी एक मित्र मानकर गले लगाना;
दुःख-सुख की चक्की ये चलती ही जायेगी,
दोनों का ही लगा रहेगा आना-जाना।

सदा विफलता को स्मृति पुंज में रखो,
जो ना चाहो सफलता से बहक जाना;
ईर्ष्या, लालच, दंभ, द्वेष को दूर भगाओ,
रहे भरा और पूरा सदगुण का खज़ाना।

अनुभव खट्टे-मीठे, कुछ कड़वे भी होंगे,
हर का लेकिन स्वाद तुम्हे है चखते जाना;
थकना और रुकना तुमको अब याद नहीं है,
याद यही है बढ़ना और बढ़ते ही जाना।

ब्लॉगर के मन की व्यथा

गुरुवार, 18 जून 2009

प्रत्येक ब्लॉगर यही चाहता है कि वह अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने में समर्थ हो सके। कुछ इस प्रयोजन में सफल हो जाते हैं क्योंकि वे बहुत अच्छा लिखते हैं, उनकी अपनी लेखनी पर पकड़ है या वे प्रसिद्धि के शिखर पर हैं। परन्तु जो बावजूद अच्छा लिखने के किन्हीं अन्य कारणों से इस प्रयास में पीछे रह जाते हैं, उनके मन की दशा एवं व्यथा का चित्रण इस कविता के माध्यम से करने का प्रयास किया गया है। अन्य ब्लोगर्स के ब्लॉग की चमक-दमक देखकर बस एक ही ख़याल उनके मन में बार-बार आता है कि......

वह पोस्ट कहाँ से लाऊं,
जिस पर टिप्पणियों के बादल उमड़-घुमड़ कर बरसें,
देख जिसे हर ब्लॉगर ऐसी ही लिखने को तरसे,
पढ़कर जिसको पाठक अपने मन की बातें पाए,
देख जिसे हर पाठक खिंचता हुआ चला आए।

हो पसंद की अग्रश्रेणी में जो ब्लोगवाणी पे,
चिट्ठाजगत भी इस स्थिति का करे समर्थन खुलके,
आज अधिक पढ़े गए में नाम जिसका आए,
आज अधिक टिप्पणी प्राप्त में ना पीछे रह जाए।

जिसके कारण ब्लॉग जगत में अपना सिक्का चल जाए,
पढ़कर जो भी जाए बार-बार वो आए,
पाठक आयें इतने कि काउंटर अपना चिल्लाये,
और गूगल पेज रैंक भी ज़ीरो से बढ़ जाए।

किन्तु विषय क्या हो सकता है कहते हैं कविराय,
हो कोई कविता, कहानी, या चर्चा की जाए ??
बहुत सोचा बहुत विचारा, किंतु खेद है हाय,
अपने को तो नहीं सूझता, कोई हो तो बताए।

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कितना बदल गया भगवान : भाग-२ (कारण)

शुक्रवार, 12 जून 2009

"कितना बदल गया भगवान" लिखते समय यह कभी नहीं सोचा था कि आपकी प्रतिक्रियाएं आज मुझे पुनः उसी विषय पर कलम उठाने के लिए प्रेरित करेंगी, इसलिए सर्वप्रथम मैं आप सभी सुधी पाठकों एवं टिप्पणीकारों का तहे दिल से शुक्रिया करता हूँ जो आप सभी ने मेरी सोच का मार्गदर्शन किया एवं मेरे विचारों को एक नया आयाम दिया। साथ ही साथ नए पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूंगा कि इस आलेख को पढ़ने से पहले इस आलेख की पिछली कड़ी "कितना बदल गया भगवान" ज़रूर पढ़ लें। शुरू करने से पहले सभी से एक अनुरोध है कि कभी भी अपने विचारों का दमन ना करें, उन्हें किसी किसी रूप में अवश्य व्यक्त करें (बशर्ते कि विचार सुविचार हों) ज़रा सोचिये उस दिन होटल में बच्चों की बातें सुनकर मेरे मन में उठे विचारों को अगर मैं आपके सामने प्रस्तुत नहीं करता, उसके बाद आलेख को पढ़कर यदि आप अपने विचार व्यक्त नहीं करते तो क्या आज मैं यह आलेख लिख रहा होता ?? कभी नहीं....... इसलिए निवेदन है कि सुविचारों का गला घोंटें।

चलिए अब अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं और जानते है समाज का बाल-वर्ग क्यूँ अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विरुद्ध आचरण कर रहा है। मैंने इस विषय पर अपनी ओर से किए गए शोध में कारणों के रूप में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जो मुख्यतया पाँच श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं:

. एकाकी परिवारों का चलन : समाज में एकाकी परिवारों के प्रचलन की बढ़ती प्रवृत्ति का सबसे भयानक असर हुआ है तो बच्चों पर, उनके बचपन पर। कहाँ तो पहले बच्चे संयुक्त परिवार में बड़े होते थे, जहाँ पर उन्हें माता-पिता के साथ-साथ दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई इत्यादि का स्नेह एवं संरक्षण मिलता था। दादा-दादी के किस्से-कहानियां सिर्फ़ उनका मनोरंजन करते थे बल्कि हलके-फुल्के अंदाज में कोई कोई सीख अवश्य दे जाते थे। इसी लिए दादा-दादी, नाना-नानी के किस्से आज भी लोकप्रिय हैं। साझे परिवार में रहना अपने आप बच्चों को मिल-जुलकर रहना, अच्छी बातें बोलना, सभी से प्रेम करना, लड़ाई-झगड़ा करना जैसी बातें सिखा देता था। यदि परिवार में कोई दुष्प्रवृत्ति का होता भी था तो सभी का यही प्रयास होता था कि बच्चों को उससे दूर रखा जाए, अब ये बात एकाकी परिवार में कहाँ सम्भव है। एकाकी परिवार में तो माता-पिता के अलावा सिर्फ़ बच्चे ही बचते हैं। यदि इनमें से एक भी निरंकुश हो जाए तो ?? वैसे मेरा कहने का मतलब यह नहीं कि एकाकी परिवारों में बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दिए जा सकते, मगर ऐसे परिवार बहुत कम देखने को मिलते हैं। देखा जाए तो एकाकी परिवार हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं ही नहीं, ऐसे में यह बात और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

. माता-पिता की अनदेखी : माता-पिता दोनों ही कमाऊ, ऐसे में माता-पिता की अनुपस्तिथि में बच्चे को संभालने के लिए आया वगैरह रख दी जाती है। कभी-कभी महंगे तोहफे, खिलौने देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। मगर जनाब, बच्चा प्यार का भूखा होता है। वह चाहता है माता-पिता का साथ, उनका स्नेह और जब वह पाता है कि माता-पिता उसकी परवाह किए बगैर सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसों के पीछे भाग रहे हैं तो वह विद्रोही स्वभाव का हो जाता है। चिडचिड़ापन और उदासी ही उसके हर वक्त के साथी बन जाते हैं। वह आस-पास के माहौल से अपनी तुलना करने लग जाता है, मसलन स्कूल जाते समय किसी बच्चे को अपने पापा के साथ साइकिल पर जाते देख उसे ड्राईवर द्वारा ख़ुद को मर्सीडीज में स्कूल छोड़ा जाना बेमानी लगता है। किसी बच्चे को लेने आती उसकी मम्मी को देख वह अपनी हालत पर दुखी हो जाता है। ऐसी ही बातें बच्चों के मानसिक ह्रास के लिए उत्तरदायी हैं।

. माता-पिता की अनावश्यक छूट : कहा गया है "अति सर्वत्र वर्जयेत्" अर्थात हर चीज़ की अधिकता बुरी होती है। बच्चों को मिलने वाली छूट के मामले में भी यह बात लागू होती है। माता-पिता को घर पर एक संतुलित माहौल बनाये रखना चाहिए, ना तो ज्यादा अनुशासन और ना ही बेवजह की ढील। कुल मिलाकर बच्चे को बचपन से ही जहाँ अच्छी बातों के लिए प्रेरित करना चाहिए, वहीं उसकी अनुचित मांगों पर नियंत्रण भी लगाना चाहिए। मगर कुछ अभिभावक जहाँ स्वयं कई तरह के तनावों और दबावों के शिकार होने के कारण घर का वातावरण ठीक नहीं रख पाते जो बच्चों की उद्दंडता का प्रमुख कारण है वहीं कुछ के पास पानी की तरह बहाने के लिए पैसा है जो बच्चों को घमंडी एवं भोग-विलास का आदी बना देता है।

. टी वी और इन्टरनेट का दुष्प्रभाव : कभी वह ज़माना था जब बुनियाद, मिट्टी के रंग, हम लोग, रामायण जैसे धारावाहिक टी वी पर आते थे और सभी को भाते थे। अश्लीलता और फूहड़पने का नामोनिशान तक नहीं था। मगर आज जब पश्चिम की हवाओं ने अपना असर दिखाया है और हर कोई पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण कर रहा है तो बच्चे भी जाहिर सी बात है करेंगे, वैसे भी बच्चे ज्यादातर आदतें, चाहे अच्छी हों या बुरी, बड़ों को देखकर ही सीखते हैं। ऍम टी वी, वी टी वी जैसे चैनल और उन पर रहे रोडीज, स्प्लिट्स विला जैसे कार्यक्रम जो कहीं से भी स्वस्थ मनोरंजन की श्रेणी में नहीं आते, किसी प्रकार की शिक्षा या सीख उम्मीद रखना तो बेकार हैं इनसे, पता नहीं कैसे आज के बच्चों और युवाओं की दीवानगी बने हुए हैं। इन्टरनेट तो इनसे एक कदम और भी आगे है। किसी भी तरह की रोक-टोक नहीं। चरित्र हनन की समस्या यहीं से पैदा होती है।

. कुसंगति : रहीमदासजी का एक दोहा है :
कदली सीप भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन।।
ठीक यही बात यहाँ पर भी लागू होती है। कुसंग को मैं दो तरह से देखता हूँ:
पहला है पारिवारिक कुसंग अर्थात परिवार में चल रही ग़लत बातों का बच्चों पर असर। यदि परिवार में कोई ग़लत आचरण करता है, गाली-गलौज करता है, लड़ाई-झगड़ा होता है, ईर्ष्या-द्वेष भरा पड़ा है, तो बच्चे पर उसका असर होगा ही। परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला कहे जाते हैं, इस लिहाज से बच्चे को अच्छा या बुरा देने में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

दूसरा है मैत्रिक कुसंग अर्थात मित्रों एवं सहपाठियों से प्राप्त होने वाला कुसंग। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है सो मित्रता करना स्वाभाविक है। अगर अच्छे मित्र मिल गए तो ठीक वरना भगवान ही मालिक है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखकर लगता नहीं कि अच्छे मित्र शेष हैं। अगर हैं भी तो उनसे मित्रता करना ही नहीं चाहता कोई, सब चाहते है ऐसा दोस्त जो क्लास का दादा हो, जिसकी सीनियर्स से जान-पहचान हो ताकि काम पड़ने पर कुछ फायदा उठाया जा सके। ऐसे दोस्त भी फ़िर उनका खूब फायदा उठाते हैं, लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौज, उद्दंडता, चोरी इत्यादि से लेकर नशे जैसी ग़लत आदतों में फंसाकर। दरअसल इंसान की ग़लत चीज़ों को जल्द अपनाने की प्रवृत्ति होती है फ़िर बच्चे तो ठहरे नासमझ, इसलिए मैत्रिक कुसंग का आसानी से शिकार हो जाते हैं।

इन सब कारणों के अलावा और भी कुछ ऐसे कारण हो सकते हैं जो बच्चों के बिगड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। यदि आप की नज़र में हो तो कृपया सभी के साथ बांटने की कृपा ज़रूर करें क्योंकि आप सभी का सहयोग ही इस चर्चा को सफल बना सकता है।

अगली कड़ी में इस भयावह स्थिति से निपटने और निकलने के उपायों पर चर्चा ज़रूर करेंगे।