हमसफ़र यादों का : पढिये एक नए रंग-रूप में

शनिवार, 29 अगस्त 2009

आज के दिन इस ब्लॉग को शुरू किये हुए ठीक ४ माह एवं ५ दिन का समय हो चला है। दिनांक २४ अप्रैल, २००९ को हमसफ़र यादों का....... की शुरुआत करते हुए मन में कुछ दुविधाएं एवं शंकाएं थी, जिनका समाधान अपनी पहली पोस्ट लिखने पर ही हो गया था। ये सब आपके प्रेम एवं शुभाशीष का ही नतीज़ा है कि मैं आज भी लिख रहा हूँ, और लिखता रहूँगा और मेरी ये कोशिश हमेशा रहेगी कि इस ब्लॉग को बेहतर कैसे बनाया जाए। इसी कड़ी के तहत आज हमसफ़र यादों का....... को नए कलेवर में आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ, इस उम्मीद के साथ कि आपको पसंद आएगा। परिवर्तन संसार एवं प्रकृति का नियम है और ये परिवर्तन अगर अच्छे के लिए हो तो क्या कहने। जीवन में बदलाव एवं गतिशीलता बहुत मायने रखती है। स्वामी रामतीर्थ ने भी कहा था - "बहता हुआ जल सदा स्वच्छ और निर्मल रहता है जबकि रुका हुआ पानी सड़ने लगता है और बदबू देता है, इसलिए जीवन में सदैव गतिशील बनो"। इसलिए रंग-रूप का ये बदलाव ज़रूरी था। आइये देखें २४ अप्रैल से अब तक क्या क्या परिवर्तन हुए हैं इस ब्लॉग में:

  • २४ अप्रैल, २००९ : ब्लॉग का शुभारम्भ
  • २४ मई, २००९ : ब्लॉग को मिली १ पेजरेंक
  • २४ जून, २००९ : ब्लॉग की पेजरेंक बढ़कर हुई २
  • २४ जुलाई, २००९ : ब्लॉग की पेजरेंक २ पर कायम
  • २९ अगस्त, २००९ : ब्लॉग एक नए अवतार में
  • कुल मिलाकर १२५ दिनों में २५ पोस्ट (यानी हर ५ दिन में एक पोस्ट)
और हाँ एक ख़ास बात बताना तो मैं आपको भूल ही गया, आज की ये पोस्ट इस ब्लॉग की सिल्वर जुबिली पोस्ट है। इसलिए कुछ हटके तो होनी ही चाहिए। तो आज अपनी एक कविता के द्बारा मिलवाता हूँ आपको यादों के इस हमसफ़र से। २ महीने पहले यूँ ही लिखी ये कविता आज प्रस्तुत करने का मौका मिला है। भाव थोड़े नकारात्मक ज़रूर हैं मगर दिल के दर्द को बयान करने का अच्छा बहाना है.......

यादों और सिर्फ़ यादों का हमसफ़र हूँ मैं,
जानता हूँ सारी दुनिया को मगर,
अपनी असल पहचान से बेख़बर हूँ मैं।
दिन और शाम से कोई वास्ता नहीं मेरा,
रात का अलसाया आखिरी पहर हूँ मैं।
ग़ज़ल इस तरह रूठ बैठी है मुझसे,
जैसे भटका हुआ कोई बहर हूँ मैं।
अपनी हस्ती दरिया, समंदर सी नहीं,
छोटी लेकिन बही जा रही एक नहर हूँ मैं।
ज़िन्दगी का नहीं कोई नामो-निशाँ बाकी,
सिर्फ़ मुर्दों और कब्रों का शहर हूँ मैं।
गिरके बस ख़ाक होने ही तो वाली है,
कहने को इमारत, असल में इक खंडहर हूँ मैं।
यादों और सिर्फ़ यादों का हमसफ़र हूँ मैं।

कविता : इन्सां मगर क्यों खो रहा है ?

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

राष्ट्र विकसित हो रहा है, मन तरंगित हो रहा है;
मिल जायेंगे पुतले बहुत, इन्सां मगर क्यों खो रहा है

स्वप्न देखे जो सुनहरे, दूर के थे ढोल सारे;
पास जाकर अब है जाना, लाख कुंदन हो रहा है।

रक्षा करेगा कौन सोचो, रक्षक ही भक्षक हो रहा है;
माली जलाए बाग़ को, तो नाव माझी डुबो रहा है।

रिश्ते सभी अब नाम के हैं, स्नेह बंधन खो रहा है;
आँख में आँसू सभी के, पर हृदय किसका रो रहा है।

एक तरफ़ है दौलत-शोहरत, एक ओर है लाचारी;
कोई पड़ा रंगीनियों में, कोई सड़क पर सो रहा है।

भगवान तेरा हर इक बन्दा, कर रहा है गोरख-धंधा;
फ़िर जा रहा हरिद्वार-काशी, पाप अपने धो रहा है।

चाहता खातिर-तवज्जो, दूसरों की नहीं ख़ुद की;
खुद आम खाने की तमन्ना, बबूल-कीकर बो रहा है।