धन्य है कबूतरी का जड़-प्रेम

रविवार, 10 मई 2009

आदरणीय समीर लाल जी के ब्लॉग "उड़न तश्तरी" पर प्रकाशित आलेख " परदेशी, अब बस कर..." को पढ़कर लगा मेरी अपनी कहानी है। क्यूँ आपको नहीं लगा क्या??? मैं दावे से कह सकता हूँ ९० प्रतिशत ऐसे लोगों ने, जो अपनी जड़ों से दूर हैं, उस आलेख को पढ़कर कहीं न कहीं मस्तिष्क में एक रेखाचित्र बनाया होगा जिसमें स्वयं को केंद्रित करके उन्होंने यादों का वह कारवां रवाना किया होगा जो उन्हें उनकी जड़ों और उनमें बीते दिनों की ओर ले गया होगा। मुझे भी अपनी जड़ों से कटने का ग़म तड़पा गया। असल में अपनी धरती, अपनी माटी की खुशबू, अपनी बोली, अपना पहनावा (मेरे हिसाब से ये सब तत्त्व मिलकर जड़ का निर्माण करते हैं) हर किसी के अंदर रचा-बसा होता है, और सारी दुनिया एक तरफ़ और अपनी जड़ से जुड़े होने का एहसास एक तरफ़। लेकिन जिस प्रकार अपनी जड़ों से जुड़े होने की खुशी अतुलनीय है, ठीक उसी प्रकार उनसे दूर होने का ग़म भी।

हमारी जड़ें लगभग-लगभग पेड़-पौधों की जड़ों जैसी ही होती हैं। जिस तरह पेड़-पौधों की जड़ें न दिखाई देते हुए भी उनका अभिन्न एवं महत्त्वपूर्ण अंग होती हैं, उसी तरह इंसान की जड़ें भी हमेशा उसके अंदर ही विद्यमान होती हैं। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि पेड़-पौधे चाहे कितनी भी आसमान की बुलंदियों को क्यों न छू लें, वे सदैव अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं। इसे एक तरह से आप उनके लिए प्रकृति का वरदान कह सकते हैं। लेकिन मनुष्य शायद प्रकृति के इस वरदान से वंचित रह गया। इस निर्दय संसार में कभी पेट की खातिर तो कभी किन्हीं और कारणों से उसे अपनी जड़ों से दूर होना पड़ता है। और यकीन मानिये ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो एकाएक अपनी जड़ों से दूर होने पर इस चीज़ का एहसास कर पाते हैं। अधिकतर या तो सुख-सुविधाओं की चकाचौंध में खो जाते हैं या फ़िर कुछ इतने मजबूर होते हैं कि उनके पास ये सब सोचने का वक्त ही नहीं होता। लेकिन इस दुनिया की भागदौड़ में इंसान कितना भी क्यों न भाग ले, देर-सबेर उसे अपनी जड़ें ही याद आती हैं।

अपनी जड़ों से प्यार करना सिर्फ़ इंसान की ही फ़ितरत में नहीं, बल्कि भोले-भाले पशु-पक्षी भी अपनी जड़ों के प्रति उतनी ही संवेदनशीलता रखते हैं जितना कि एक मनुष्य (बल्कि कहीं अधिक)। अभी कुछ दिन पहले की ही बात बताता हूँ। जिस कमरे में रहता हूँ वह मकान की दूसरी मंजिल पर है और कूलर खिड़की पर बाहर की ओर लगा हुआ है (जैसा कि आजकल के अधिकाँश मकानों में होता है)। पिछले साल सर्दियों का मौसम शुरू होने पर जब कूलर का इस्तेमाल बंद कर दिया गया था तो उसमें एक कबूतरी आकर बस गयी थी। सर्दियां ख़त्म होते-होते एक बार तो उसके बच्चे बड़े होकर उड़ गए और तभी उसने दुबारा अंडे दे दिए। हम भी इसी प्रतीक्षा में थे कि ये अंडे भी बच्चों में तब्दील होकर उड़ जाएँ तो कूलर की सफाई की जाए ताकि गर्मियां आने पर इस्तेमाल में आ सके। अब गर्मियों का मौसम आने लगा था। शुरूआती दिन तो यूँ ही बीत गए। थोड़ी गर्मी बढने पर पंखे से काम चला लिया और इंतज़ार चलता रहा। ऐसा करते-करते मई का महीना आ पहुँचा। अब मई के महीने की गर्मी तो आप सबको पता ही है। इतनी भीषण गर्मी में जब पंखा भी जवाब दे गया तो साथ में रहने वाले मित्रों ने सुझाव दिया कि क्यों ना कबूतरी का घोंसला कूलर के ऊपर बना दिया जाए। इस तरह हम भी गर्मी से बच जायेंगे और उसका घर भी सलामत रहेगा। सभी की सलाह से कबूतरी के लिए इस तरह का घरनुमा घोंसला बनाया गया जिसमें उसका गर्मी से भी बचाव हो सके और वह आराम से रह भी सके। उसके अंडे भी हिफाज़त से उसमें रख दिए गए।

कबूतरी पहले दिन तो उस घोंसले में रह गयी, परन्तु उसका जड़-प्रेम तो देखिये। हम सब रात को कूलर चलाकर सोये थे। सुबह के करीब ६ बजे कुछ आवाज़ सी हुई। उठकर देखा तो मेरे मित्र भागे-भागे गए कूलर को बंद करने। कूलर की तरफ़ देखा तो सारा माजरा समझ में आ गया। कूलर में घुसने की कोशिश में कबूतरी थोड़ी सी घायल हो गई थी। एक तरफ़ तो हमें अफ़सोस हुआ कि हमारी वजह से वह घायल हो गई, मगर दूसरी ओर हम उसका अपने जड़ (घर) के प्रति प्रेम देखकर आश्चर्यचकित थे। सभी उस कबूतरी को देखने गए। हालत ज्यादा नाज़ुक नहीं थी। उसे पानी पिलाया गया और थोड़ी देर बाद वह ठीक होकर उड़ गई। इसी बीच मेरे मित्र ने बताया कि वह कबूतरी दिन भर कूलर में घुसने का प्रयास कर रही थी परन्तु उन्हें देखकर वह डरकर उड़ जाती थी। रात को सभी को सोता देखकर उसने उपयुक्त अवसर पाया होगा और बिना कूलर के चलते होने की परवाह किए बिना वह अपने पुराने घर में जाने लगी। धन्य है कबूतरी का अपने नीड़, अपनी जड़ के प्रति प्रेम जो उसे उस नए एवं आरामदायक घर में भी न बाँध सका। इस प्रयास में उसकी जान भी जा सकती थी परन्तु वह कहाँ अपनी जान की परवाह करने वाली थी उसे तो उसका नीड़ ही प्यारा था।

जब पशु-पक्षी भी अपनी जड़ों के प्रति इतना प्रेम रख सकते हैं तो फ़िर बुद्धिजीवी कहलाने वाला मनुष्य क्यों नहीं??? जो अपनी जड़ों के प्रति असंवेदनशील हैं उन्हें कबूतरी से कुछ न कुछ सीख अवश्य लेनी चाहिए। मेरे विचार में जड़ के प्रति प्रेम भी कई तरह का होता है। जब आप अपने शहर से बाहर जाते हैं तो शहर की याद आती है, राज्य से बाहर जाते हैं तो राज्य की और देश छोड़कर जाने पर देश की। बात यहाँ पर शहर, राज्य या देश की नहीं हो रही है, बात है जड़ की और जड़-प्रेम की। आप जड़ को किसी भी रूप में देखते हों मगर उससे प्रेम करने वाले होने चाहिए।

इसी बात पर किसी कवि ने क्या खूब कहा है:
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश (जड़) का प्यार नहीं॥

शेष फ़िर!!!


5 टिप्पणियाँ
हरकीरत ' हीर' ने कहा…

जब पशु-पक्षी भी अपनी जड़ों के प्रति इतना प्रेम रख सकते हैं तो फ़िर बुद्धिजीवी कहलाने वाला मनुष्य क्यों नहीं??? जो अपनी जड़ों के प्रति असंवेदनशील हैं उन्हें कबूतरी से कुछ न कुछ सीख अवश्य लेनी चाहिए। मेरे विचार में जड़ के प्रति प्रेम भी कई तरह का होता है। जब आप अपने शहर से बाहर जाते हैं तो शहर की याद आती है, राज्य से बाहर जाते हैं तो राज्य की और देश छोड़कर जाने पर देश की। बात यहाँ पर शहर, राज्य या देश की नहीं हो रही है, बात है जड़ की और जड़-प्रेम की। आप जड़ को किसी भी रूप में देखते हों मगर उससे प्रेम करने वाले होने चाहिए।

ब्लॉग जगत में स्वागत है आपका.......!!
समीर जी के हवाले से अच्छी पोस्ट लिखी आपने ....शब्दों पर भी अच्छी पकड़ है ...!!

Sanjay Grover ने कहा…

हुज़ूर आपका भी .......एहतिराम करता चलूं .....
इधर से गुज़रा था- सोचा- सलाम करता चलूं ऽऽऽऽऽऽऽऽ



कृपया एक व्यंग्य को पूरा करने में मेरी मदद करें। मेरा पता है:-
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शुभकामनाओं सहित
संजय ग्रोवर
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Daisy ने कहा…

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