कविता : रुक जाना नहीं तू कहीं हार के...

बुधवार, 13 मई 2009

कभी-कभी
जब मैं सोचता हूँ,
अकेले में,
उदासी में,
तो ना जाने क्यूँ
एक चिंगारी
भड़क जाती है जहन में,
एक धुआं सा उठता है,
एक आग जो
दबी पड़ी थी किसी कोने में,
या लगभग बुझ चुकी थी
सुलगने लगती है।

मेरा अन्तर्मन
शायद कुछ कहने की
कोशिश करता है
मुझ जैसे से,
जिसने अपने कानों को
सिर्फ़ बाहर की दुनिया के लिए
खोल रखा है,
और ना चाहते हुए भी
अन्दर की आवाज़ को
दबा रखा है।

जो अनजान है
अपने भीतर के सच से,
अपनी असली पहचान से,
नाम तो याद है जिसे
अपना मगर,
नाम के मक़सद से है
नावाकिफ़,
खो गया है जो
दुनिया की भीड़ में,
भटक गया है
सफ़र में कहीं,
भूल गया है
मंजिल का ठिकाना।

ज़िन्दगी जिंदादिली का नाम है,
मगर जी रहा है
मुर्दादिल बनकर,
खुश नज़र आता है सभी को,
लेकिन खुशी से कोसों दूर,
डूब चुका है जो
स्याह रातों में,
हताशा-निराशा के भंवर में।

तभी ख़याल आता है
ज़िन्दगी के उन हसीं लम्हातों का,
वो पल जो यादगार गुज़रे,
वो यादें वो बातें,
तमन्नाओं के रेले,
बहारों के मेले,
और एक पल में ही
निराशा के बादल छंट जाते हैं,
जगमगाता है आशा का सूरज,
ख़त्म हो जाती है
नकारात्मक चिंतन के पत्थर से
मन के तालाब में
पैदा हुई हलचल,
आ जाती है स्थिरता,
मिलती है एक नई प्रेरणा
जीने की,
जिंदादिली की।

एहसास होता है
इंसान की इस फ़ितरत का
जो ज़रा सा ग़म मिलने पर
उसे मायूस कर देती है,
राई जितने ग़म को
पहाड़ कर देती है,
लगता है तब अपना ही ग़म
उसे दुनिया में सबसे बड़ा,
जबकि जहाँ में है कहीं ज्यादा दर्द
कहीं ज्यादा पीड़ा,
और सुनाई देती है अंदर की आवाज़,
जो कह रही है
तुम अपने आप में
पूरे हो
पक्के हो।

यह कविता क्यों?
प्रत्येक व्यक्ति की कुछ अपनी कमजोरियाँ होती हैं जो उसे अक्सर नकारात्मक चिंतन की ओर उन्मुख होने पर विवश कर देती हैं। हर इंसान ज़िन्दगी में कभी ना कभी इस मोड़ से ज़रूर गुजरता है जब उसे अपना जीवन बेमानी लगने लगता है, चारों ओर से हताशा और निराशा उसे घेर लेती है। मगर जीवन तो संघर्ष का दूसरा नाम है इसलिए उसे अपनी ज़िन्दगी के हसीन लम्हों को याद करना चाहिए और उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ना चाहिए।

शेष फ़िर!!!


8 टिप्पणियाँ
RAJNISH PARIHAR ने कहा…

बिलकुल ठीक..हर इंसान को कभी न कभी ऐसे हालत से गुजरना ही पड़ता है..लेकिन रुक जाना नहीं...

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

कभी-कभी
जब मैं सोचता हूँ,
अकेले में,
उदासी में,
तो ना जाने क्यूँ
एक चिंगारी
भड़क जाती है जहन में,
एक धुआं सा उठता है,
एक आग जो
दबी पड़ी थी किसी कोने में,
या लगभग बुझ चुकी थी
सुलगने लगती है।

सुंदर अभिव्यक्ति ....!!

ghughutibasuti ने कहा…

यथार्थ को दर्शाती प्रेरणादायक कविता।
घुघूती बासूती

MAYUR ने कहा…

आपके ब्लॉग की सामग्री काफी अच्छी लगी, आप अच्छा लिखते हैं ,
साथ ही आपका चिटठा भी खूबसूरत है ,

यूँ ही लिखते रही हमें भी उर्जा मिलेगी ,

धन्यवाद
मयूर
अपनी अपनी डगर

शोभना चौरे ने कहा…

ak kvita hi nairashya se bahr la skti hai.

Daisy ने कहा…

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Daisy ने कहा…

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Daisy ने कहा…

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