मत चूको चौहान

मंगलवार, 5 मई 2009

परसों रविवार था। कुछ फ़ुर्सत के लम्हें। सोचा क्यों न रेडियो सुन लिया जाय। परन्तु यह क्या?? रेडियो चालू करते ही राजनीतिक दलों के विज्ञापनों की बौछार शुरू। एक बार शुरू हुई नहीं कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लिया। वही पुराने घिसे-पिटे सन्देश, हमारी पार्टी को ही वोट दें, हमारी पार्टी सबसे अच्छी, हमारी पार्टी आपके विकास में भागीदार बनेगी, हमारी पार्टी ने इस वर्ग के लिए ये किया, उस वर्ग के लिए वो किया इत्यादि-इत्यादि। अन्य देशों का तो पता नहीं, लेकिन भारत में चुनावों को एक मौसम, एक त्यौहार, एक विशिष्ट आयोजन की तरह लिया जाता है। पूरा देश अपने सारे काम-धंधे छोड़कर लग जाता है चुनावों की खबर-पड़ताल में। इसी बहाने समाचार चैनल अच्छी-ख़ासी कमाई कर जाते हैं, गरमा-गर्म खबरों के तड़के दर्शकों को खूब भाते हैं। क्या करें अपनी तो पैदाइश ही ऐसे देश में हुई है जिसे "मसालों" के लिए जाना जाता है। इसलिए यहाँ की आदत में शुमार है मसालेदार चीज़ों का सेवन। इसी बात का फायदा समाचार चैनल उठाते हैं और साथ ही राजनीतिक दल भी। विज्ञापन तो ऐसे-ऐसे की क्या कहने। आम आदमी का सिर चकरा जाए, पूर्णतः मतिहरण करने वाले।

चुनावों का दौर शुरू होते ही एक सिलसिला चल पड़ता है आरोप-प्रत्यारोपों का। एक ओर जहाँ सत्तारूढ़ दल अपने विकास कार्यों का लेखा-जोखा बड़ी शान के साथ सुनाता है, वहीँ दूसरी ओर विपक्षी दल कहाँ चुप बैठने वाले होते हैं। उनके पास तो सत्तारूढ़ दल की खामियों के पुलिंदे पड़े होते हैं जिसे सुनाकर वो आम जनता को अपने पक्ष में करने की सोचते हैं। सभी दल विकास की बातें करते हुए नज़र आते हैं। विकास का मुद्दा ही तो उनका प्रमुख चुनावी हथियार है जिसका अंधाधुंध प्रयोग वे देश की जनता पर सालों से करते आ रहे हैं। अन्य हथियारों में शामिल हैं बेरोज़गारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा और नवीनतम मुद्दा आतंकवाद नेताओं के लम्बे-चौड़े भाषण और जन-सभाएं शुरू हो जाती हैं। जातीय समीकरण बनाए जाते हैं।

वाकई गज़ब की है यह कुर्सी की दौड़ और उससे भी दिलचस्प है इसके लिए खींचातानी। सभी दल पूरी तैयारी के साथ उतरते हैं इस महासमर में। कोई भी यह स्वर्णिम अवसर गवाँना नहीं चाहता। हर दल के पास अपनी विशेष रणनीति होती है अन्य दलों को परास्त करने की, अपने-अपने महारथी एवं धुरंधर होते हैं। पता नहीं कौन-कौन से हथकंडे अपनाए जाते हैं, क्या-क्या दाव-पेंच लगाए जाते हैं। वायदों और घोषणाओं की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार होती है। प्रचारक दिन रात इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं किस तरह अधिक से अधिक क्षेत्रों और वर्गों तक पहुँच बनाई जाय। साम-दाम-दंड-भेद सभी नीतियों का प्रयोग किया जाता है। "नोट के बदले वोट" और "भाषण के बदले राशन" भी अपनाए जाते हैं।

अतः विनम्र निवेदन है सभी मतदाताओं से कि वे राजनीतिक दलों के लुभावने वायदों और विज्ञापनों पर ध्यान न दें अपितु अपने मन, बुद्धि, विवेक से काम लें। वोट किसी भी पार्टी को दें (यह आपके निर्णय पर निर्भर करता है) परन्तु पहले यह सुनिश्चित कर लें कि वह पार्टी आपका जनाधार पाने के लायक है भी या नहीं और वह आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतर सकेगी या नहीं। आपकी जागरूकता ही इस सम्बन्ध में आपकी मददगार है। और यही वो समय है जब आप अपनी पहचान दर्ज़ करवा सकते हैं, देश का भविष्य तय कर सकते हैं। अतः सावधान, यह महत्त्वपूर्ण अवसर चूकने पाए।

अंत में.......
हे भारत के आम जन,
हे भारत के मतदाता।
दो जनाधार उसको जो हो,
जन-गण-मन का अधिनायक,
भारत भाग्य विधाता॥

शेष फ़िर!!!

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11 टिप्पणियाँ
राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

अगर हम भी कुछ आरो-प्रत्यारोप सीख लें.....तो आगे काम आ सकते हैं.....हा....हा...हा..हा..हा..यूँ तो आपने खूब लिखा और हमने भी खूब समझा ......!!

श्यामल सुमन ने कहा…

वे कहते हम सब हैं सच्चे दूध के सारे धुले हुए हैं।
जब रहस्य परदे पर खुलता हंगामे पर तुले हुए हैं।
पक्ष विपक्ष के भाषण में ही असली मुद्दा खो जाता है,
एक थैली के चट्टे बट्टे आपस में सब मिले हुए हैं।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत सटिक लिखा है आपने. शुभकामनायें

चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.

गुलमोहर का फूल

buddhaofsuburbia ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
buddhaofsuburbia ने कहा…

kintu lekhak mahoday ,"chauhan" ki is lekh mein kya bhumika hai? aapke sheershak se yeh prateet hota hai ki aap rajnaitik hatya ki or pravrit hain. Radio pe filmi sangeet ka anand lene mein asamarth hone ke kaaran aap rajnetaon se poori tarah khundak khae hue hain aur lagta hai is baar ek-aadhe ka patta kaat hi denge. ummeed karte hain ki aap chookenge nahin!

बेनामी ने कहा…

प्रिय buddhaofsuburbia,
आपकी तर्क शक्ति लाजवाब है. आपके प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ और इस लेख के शीर्षक की सार्थकता भी बता रहा हूँ. आपने पृथ्वीराज चौहान का नाम तो सुना ही होगा. चौहान शब्द का इस लेख में प्रयोग पृथ्वीराज चौहान के लिए ही हुआ है. जिस तरह पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को उसकी आवाज़ सुनकर ही शब्द-भेदी बाण से मार गिराया था (उनके लिए वह स्तिथि "मत चूको चौहान" वाली थी क्योंकि वह अवसर चूकने पर सिर्फ़ पछतावा ही हाथ लगता), उसी तरह मतदाताओं से मेरी विनती है कि वे अपनी सरकार चुनने का यह महत्त्वपूर्ण अवसर हाथ से ना जाने दें और सोच-समझकर मतदान करें (पछतावे की गुंजाइश ना रखें). मैंने राजनेताओं से किसी प्रकार के व्यक्तिगत बैर के चलते यह आलेख नहीं लिखा है और ना ही मैं किसी राजनीतिक हत्या की ओर प्रवृत हूँ बल्कि यह सब देश की वास्तविक स्तिथि का चित्रण है. फ़िर भी आपके प्रश्न के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!!!

buddhaofsuburbia ने कहा…

mitr
kshama kijiyega.shayad yeh "mat chooko chauhan" hindi bhasha ka koi saamanya upyog vakyansh hai jisse main parichit nahin hun.par yeh atyant ashcharyajanak baat hai ki Prtihviraaj Chauhan ki yeh lok gaatha aitihasik tathyon ke sateek viprit hai.
1190 mein Karnal ke nikat Taraori mein hui pehli jung mein Prithviraj Chauhan ne Muhammad Ghuri ko na sirf poorn roop se parajit kiya balki use ranbhoomi chod kar bhagne par vivash kar diya.ab is avsar par agar Chauhan Ghuri ka peecha karke use maar giraate to na sirf Bharat balki poore vishv ka itihaas shayad kuch aur hota. kintu us abhimaani rajput ne itne tuchh shatru par apni urja vyay karna uchit nahin samjha aur Ghuri ghayal hone ke bawjood sahi salamat Afghanistan laut gaya.
agle saal 1192 mein Ghuri apni haar ka badla lene fir Hindustan pahuncha aur Taraori ki usi ranbhoomi mein usne Prtihviraj ki sena ko ukhaad phenka.
kai itihaskaaron ka maanana hai ki Prithviraj is yudh mein veergati ko prapt hue jab ke kuch maante hain ki Ghuri unhe bandi banake apne saath le gaya.

bahar haal,Prithviraj chooke aur chooke zaroor aur unki veh chook Hindustan mein Islam ke aagman ka agr-doot bani.
Prithviraj Chauhan ki kabr aj bhi kabul mein maujood hai.
to jis tarah Chauhan chooke the theek usi tarah har baar duniya ke pratyek prajatantra ke matdaata chookte hain.

बेनामी ने कहा…

प्रिय buddhaofsuburbia,
सर्वप्रथम तो आपके इतिहास ज्ञान की दाद देना चाहूंगा, साथ ही यह भी कहना चाहूंगा कि भले ही यह "मत चूको चौहान" वाक्यांश ऐतिहासिक तथ्यों से उपजा हो या पृथ्वीराज चौहान की लोकगाथा से ही क्यों न प्रेरित हो, हम सभी प्रजातंत्र में विश्वास रखने वालों को इसके पीछे छिपे सन्देश को समझना चाहिए. हमारे लिए यह बात मायने नहीं रखती कि पृथ्वीराज चौहान चूके थे या नहीं, बजाय इसके हमारे लिए अहम है कि हमें किसी भी कीमत पर नहीं चूकना है. बस इतनी छोटी सी गुज़ारिश थी इस आलेख के पीछे.

Uttamsingh ने कहा…

Uttamsingh chouhan jalore rajsthan

Daisy ने कहा…

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Daisy ने कहा…

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