कितना बदल गया भगवान : भाग-२ (कारण)

शुक्रवार, 12 जून 2009

"कितना बदल गया भगवान" लिखते समय यह कभी नहीं सोचा था कि आपकी प्रतिक्रियाएं आज मुझे पुनः उसी विषय पर कलम उठाने के लिए प्रेरित करेंगी, इसलिए सर्वप्रथम मैं आप सभी सुधी पाठकों एवं टिप्पणीकारों का तहे दिल से शुक्रिया करता हूँ जो आप सभी ने मेरी सोच का मार्गदर्शन किया एवं मेरे विचारों को एक नया आयाम दिया। साथ ही साथ नए पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूंगा कि इस आलेख को पढ़ने से पहले इस आलेख की पिछली कड़ी "कितना बदल गया भगवान" ज़रूर पढ़ लें। शुरू करने से पहले सभी से एक अनुरोध है कि कभी भी अपने विचारों का दमन ना करें, उन्हें किसी किसी रूप में अवश्य व्यक्त करें (बशर्ते कि विचार सुविचार हों) ज़रा सोचिये उस दिन होटल में बच्चों की बातें सुनकर मेरे मन में उठे विचारों को अगर मैं आपके सामने प्रस्तुत नहीं करता, उसके बाद आलेख को पढ़कर यदि आप अपने विचार व्यक्त नहीं करते तो क्या आज मैं यह आलेख लिख रहा होता ?? कभी नहीं....... इसलिए निवेदन है कि सुविचारों का गला घोंटें।

चलिए अब अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं और जानते है समाज का बाल-वर्ग क्यूँ अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विरुद्ध आचरण कर रहा है। मैंने इस विषय पर अपनी ओर से किए गए शोध में कारणों के रूप में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जो मुख्यतया पाँच श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं:

. एकाकी परिवारों का चलन : समाज में एकाकी परिवारों के प्रचलन की बढ़ती प्रवृत्ति का सबसे भयानक असर हुआ है तो बच्चों पर, उनके बचपन पर। कहाँ तो पहले बच्चे संयुक्त परिवार में बड़े होते थे, जहाँ पर उन्हें माता-पिता के साथ-साथ दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई इत्यादि का स्नेह एवं संरक्षण मिलता था। दादा-दादी के किस्से-कहानियां सिर्फ़ उनका मनोरंजन करते थे बल्कि हलके-फुल्के अंदाज में कोई कोई सीख अवश्य दे जाते थे। इसी लिए दादा-दादी, नाना-नानी के किस्से आज भी लोकप्रिय हैं। साझे परिवार में रहना अपने आप बच्चों को मिल-जुलकर रहना, अच्छी बातें बोलना, सभी से प्रेम करना, लड़ाई-झगड़ा करना जैसी बातें सिखा देता था। यदि परिवार में कोई दुष्प्रवृत्ति का होता भी था तो सभी का यही प्रयास होता था कि बच्चों को उससे दूर रखा जाए, अब ये बात एकाकी परिवार में कहाँ सम्भव है। एकाकी परिवार में तो माता-पिता के अलावा सिर्फ़ बच्चे ही बचते हैं। यदि इनमें से एक भी निरंकुश हो जाए तो ?? वैसे मेरा कहने का मतलब यह नहीं कि एकाकी परिवारों में बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दिए जा सकते, मगर ऐसे परिवार बहुत कम देखने को मिलते हैं। देखा जाए तो एकाकी परिवार हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं ही नहीं, ऐसे में यह बात और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

. माता-पिता की अनदेखी : माता-पिता दोनों ही कमाऊ, ऐसे में माता-पिता की अनुपस्तिथि में बच्चे को संभालने के लिए आया वगैरह रख दी जाती है। कभी-कभी महंगे तोहफे, खिलौने देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। मगर जनाब, बच्चा प्यार का भूखा होता है। वह चाहता है माता-पिता का साथ, उनका स्नेह और जब वह पाता है कि माता-पिता उसकी परवाह किए बगैर सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसों के पीछे भाग रहे हैं तो वह विद्रोही स्वभाव का हो जाता है। चिडचिड़ापन और उदासी ही उसके हर वक्त के साथी बन जाते हैं। वह आस-पास के माहौल से अपनी तुलना करने लग जाता है, मसलन स्कूल जाते समय किसी बच्चे को अपने पापा के साथ साइकिल पर जाते देख उसे ड्राईवर द्वारा ख़ुद को मर्सीडीज में स्कूल छोड़ा जाना बेमानी लगता है। किसी बच्चे को लेने आती उसकी मम्मी को देख वह अपनी हालत पर दुखी हो जाता है। ऐसी ही बातें बच्चों के मानसिक ह्रास के लिए उत्तरदायी हैं।

. माता-पिता की अनावश्यक छूट : कहा गया है "अति सर्वत्र वर्जयेत्" अर्थात हर चीज़ की अधिकता बुरी होती है। बच्चों को मिलने वाली छूट के मामले में भी यह बात लागू होती है। माता-पिता को घर पर एक संतुलित माहौल बनाये रखना चाहिए, ना तो ज्यादा अनुशासन और ना ही बेवजह की ढील। कुल मिलाकर बच्चे को बचपन से ही जहाँ अच्छी बातों के लिए प्रेरित करना चाहिए, वहीं उसकी अनुचित मांगों पर नियंत्रण भी लगाना चाहिए। मगर कुछ अभिभावक जहाँ स्वयं कई तरह के तनावों और दबावों के शिकार होने के कारण घर का वातावरण ठीक नहीं रख पाते जो बच्चों की उद्दंडता का प्रमुख कारण है वहीं कुछ के पास पानी की तरह बहाने के लिए पैसा है जो बच्चों को घमंडी एवं भोग-विलास का आदी बना देता है।

. टी वी और इन्टरनेट का दुष्प्रभाव : कभी वह ज़माना था जब बुनियाद, मिट्टी के रंग, हम लोग, रामायण जैसे धारावाहिक टी वी पर आते थे और सभी को भाते थे। अश्लीलता और फूहड़पने का नामोनिशान तक नहीं था। मगर आज जब पश्चिम की हवाओं ने अपना असर दिखाया है और हर कोई पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण कर रहा है तो बच्चे भी जाहिर सी बात है करेंगे, वैसे भी बच्चे ज्यादातर आदतें, चाहे अच्छी हों या बुरी, बड़ों को देखकर ही सीखते हैं। ऍम टी वी, वी टी वी जैसे चैनल और उन पर रहे रोडीज, स्प्लिट्स विला जैसे कार्यक्रम जो कहीं से भी स्वस्थ मनोरंजन की श्रेणी में नहीं आते, किसी प्रकार की शिक्षा या सीख उम्मीद रखना तो बेकार हैं इनसे, पता नहीं कैसे आज के बच्चों और युवाओं की दीवानगी बने हुए हैं। इन्टरनेट तो इनसे एक कदम और भी आगे है। किसी भी तरह की रोक-टोक नहीं। चरित्र हनन की समस्या यहीं से पैदा होती है।

. कुसंगति : रहीमदासजी का एक दोहा है :
कदली सीप भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन।।
ठीक यही बात यहाँ पर भी लागू होती है। कुसंग को मैं दो तरह से देखता हूँ:
पहला है पारिवारिक कुसंग अर्थात परिवार में चल रही ग़लत बातों का बच्चों पर असर। यदि परिवार में कोई ग़लत आचरण करता है, गाली-गलौज करता है, लड़ाई-झगड़ा होता है, ईर्ष्या-द्वेष भरा पड़ा है, तो बच्चे पर उसका असर होगा ही। परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला कहे जाते हैं, इस लिहाज से बच्चे को अच्छा या बुरा देने में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

दूसरा है मैत्रिक कुसंग अर्थात मित्रों एवं सहपाठियों से प्राप्त होने वाला कुसंग। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है सो मित्रता करना स्वाभाविक है। अगर अच्छे मित्र मिल गए तो ठीक वरना भगवान ही मालिक है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखकर लगता नहीं कि अच्छे मित्र शेष हैं। अगर हैं भी तो उनसे मित्रता करना ही नहीं चाहता कोई, सब चाहते है ऐसा दोस्त जो क्लास का दादा हो, जिसकी सीनियर्स से जान-पहचान हो ताकि काम पड़ने पर कुछ फायदा उठाया जा सके। ऐसे दोस्त भी फ़िर उनका खूब फायदा उठाते हैं, लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौज, उद्दंडता, चोरी इत्यादि से लेकर नशे जैसी ग़लत आदतों में फंसाकर। दरअसल इंसान की ग़लत चीज़ों को जल्द अपनाने की प्रवृत्ति होती है फ़िर बच्चे तो ठहरे नासमझ, इसलिए मैत्रिक कुसंग का आसानी से शिकार हो जाते हैं।

इन सब कारणों के अलावा और भी कुछ ऐसे कारण हो सकते हैं जो बच्चों के बिगड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। यदि आप की नज़र में हो तो कृपया सभी के साथ बांटने की कृपा ज़रूर करें क्योंकि आप सभी का सहयोग ही इस चर्चा को सफल बना सकता है।

अगली कड़ी में इस भयावह स्थिति से निपटने और निकलने के उपायों पर चर्चा ज़रूर करेंगे।


16 टिप्पणियाँ
Unknown ने कहा…

bahut khoob !
behtreen!

RAJ ने कहा…

आपने जो भी कारण दिए हैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ...

पर हम और आप अपने बचों को ही संभाल सकते हैं बाकी देश तो उसी रह चलेगा जिस पे मीडीया चलाएगा....

Science Bloggers Association ने कहा…

जमाने की हवा लगने पर ऐसा ही होता है।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Anil Pusadkar ने कहा…

भई हम तीनो भाई एक साथ रहते हैं।माता जी की भी छाया हमारे सर पर बनी हुई है,फ़िर भी ये ज़रूर कह सकता हूं कि आपसे असहमत होने का कोई कारण नही दिखता।

SAHITYIKA ने कहा…

aapne jo bhi karan diye hai..bilkul sahi hai..
paison k prati badhti aasakti .. aur parivar k prati kam hoti bhavnaao ke karan hi ..ye sabhi cheeze janam leti hai.

ओम आर्य ने कहा…

aapne jo bhi facts bataye hai solah aane sach hai ...........in sari baato par bichaar karane ki jarurat hai.......sundar

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

आपने बिलकुल सही तर्क दिए है...!इन्ही कारणों से बच्चे बिगड़ते.. जा रहे है...!हाँ एक और कारन है..वो है बच्चों को नाजायज़ शह देना...!हम स्कूलों में रोज देखते है,छोटी छोटी बातों पर किस तरह माँ बाप आ धमकते है और बिना पूरी बात सुने उनका पक्ष लेने लगते है...!अब अध्यापक बच्चों को क्यूँ डांटेगा?यही हाल समाज में भी है ,किसी ने कहा नहीं और ...ये कहने लगते है---पहले अपने बच्चो को सिखाइये साब ...हम तो इन्हें अपने आप समझा लेंगे...!अब बताइए कौन इन्हें टोकना चाहेगा???

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

मुझे ख़ुशी है कि आपने मेरे सुझाव पर पिछली पोस्ट को पूरा करना तय किया .
यह विश्लेष्ण बहुत ही सटीक है इसके आगे निवारण पर भी आपकी लेखनी चलने वाली है यह सूचना प्रसन्नता देती है .यदि आगामी पोस्ट किन्ही मनोवैज्ञानिकों के वक्तव्यों से पुष्ट कर सकें तो यह मेरे मत में बहुत ही उत्तम होगा .
मेरे प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए आभार ,साधुवाद और धन्यवाद

दिगम्बर नासवा ने कहा…

aap ki baat se poorntah sahmat hun main bhi.........

vijay kumar sappatti ने कहा…

sir,

apne jo bhi likha hai sat pratishat sahi hai ... yahi kaaran hai .. aapke is lekh ne bahut gahan vichaar prastit kiye hai ...

aapko badhai ..

vijay
pls read my new sufi poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/06/blog-post.html

बेनामी ने कहा…

सभी टिप्पणीकारों एवं पाठकों का तहे-दिल से शुक्रिया......बस इसी प्रकार अपना स्नेह एवं आशीष बनाए रखें.

साभार
हमसफ़र यादों का.......

Urmi ने कहा…

वाह! बड़ा अच्छा लगा आपका ये पोस्ट! बिल्कुल सही फ़रमाया आपने!

buddhaofsuburbia ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
buddhaofsuburbia ने कहा…

और जानते है समाज का बाल-वर्ग क्यूँ अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विरुद्ध आचरण कर रहा है। "

लेखक महोदय
आपका यह वाक्य पढ़ के पहला सवाल जो ज़हन में उठता है वह यह की क्या वाकई समाज का बाल वर्ग अपनी स्वाभाविक प्रवृत्त्तियों के विपरीत आचरण कर रहा है?बालक भीम खेल-खेल में ही सुयोधन को उठा के पटक दिया करते थे...यह जानते हुए भी के सुयोधन उनके जितना बलशाली नहीं....महज़ ७-८ साल के लव- कुश हाथों में अस्त्र लेकर अयोध्या नरेश से युद्घ पर उतारू हो गए ...ज़हीरुद्दीन बाबर ११ साल के थे जब वे सेनापति बने .... जलालुद्द्दीन अकबर १२ साल के जब वे मुग़ल सम्राट बने और रणभूमि पे उतर के लाखों योद्धाओं की मौत का सबक बने. और आपने तो इन बेचारे बच्चों को सिर्फ मार -पीट का ज़िक्र करने के लिए ही सूली पे टांग दिया!

आपके इस लेख में दो बातें उभर के आती हैं जिन्हें इस पूरे लेख का निचोड़ माना जा सकता है:-
१.समाज नैतिक पतन की ओर बढ़ रहा है
२.इस नैतिक पतन के मुख्य कारण आधुनिक युग की उपलब्धिआं,टेलिविज़न,एकाकी परिवार आदि हैं.

किसी सामाजिक विज्ञानी से पूछे तो वह बताएगा की समाज का पतन नहीं बल्कि उत्थान हुआ है.मनुष्य गुफाओं में रहता था और जंगली जानवरों की तरह शिकार कर के अपना पेट पालता था और इन्हीं जानवरों की तरह वह भी कुछ हद तक स्वार्थी ,क्रूर एवं कठोर था.यह गुण उसमे एम् टीवी देखने से नहीं आये बल्कि यह वो गुण थे जिनके बिना उस पर्यावरण में उसका जीवित रह पाना नामुमकिन था.मानवी समाज का थोडा और विकास हुआ और शुरुआत हुई असीम निरंतर युद्घ और हिंसा के दौर की.व्यापक नरसंहार की नींव पर बड़े - बड़े साम्राज्य उठे और ख़ाक में मिलते चले गए ...लूट -पाट, मार-काट ,कत्ले- आम, बलात्कार....जीवन का हिस्सा बन गए. सिकंदर,चंघेज़ खान ,तैमूर, मुहम्मद तुघ्लक,औरंगजेब , हिटलर,स्तालिन.....न ही यह एम्.टीवी Roadies देखा करते थे और न ही यह एकाकी परिवारों की पैदाइश थे.
द्वितीय विश्व युद्घ के बाद पूरे संसार में तुलनात्मक शांति रही है जो शायद ही मानवता के इतिहास में किसी और दौर में देखने को मिली है.मूल मानव अधिकारों को आज लगभग प्रत्येक समाज में स्वीकारा गया है.किन्तु केवल ६०-७० वर्ष पहले तक ऐसा नहीं था.सदियों से मनुष्य ही मनुष्य पर निर्दयता से अत्याचार करता हुआ आ रहा था .आधुनिक युग में यह स्थिति बदली है.
सामाजिक और नैतिक बुराइयां ,हिंसा,भोग-वासना ...यह सब कल-परसों ही पैदा नहीं हुए...इन्होने इंसान के साथ ही जन्म लिया और इंसान के साथ ही ख़त्म होंगे.
चौपाल में पीपल के तले हुक्का बीढ़ी फूंकते हुए बढे-बुजुर्ग बतियाते हैं."आजकल ज़माना बदल गया है".पहले वाले ज़माने अब कहाँ रहे","आजकल के नौजवानों में दम नहीं,आलसी हैं,निकम्मे हैं","आजकल अपराध बहुत बढ़ गया है.." वगैरह वगैरह....१००० साल पहले भी यही बातें चलती थीं ...हम भी अपने आने वाली पीढी से यही कहेंगे...और अज से १००० साल बाद भी एक पीढी अपनी अगली पीढी से यही कहेगी.वह स्वर्णिम किन्तु काल्पनिक इतिहास जब सब कुछ परिपूर्ण था...चारों ओर सम्पन्नता और खुशहाली थी...और यह वर्तमान जब मानव जाती विनाश और प्रलय की कगार पर खड़ी है....शायद यह हमारी मानसिकता का हिस्सा बन चुकी हैं ...यह कहानियों में सुनने में बड़ी भली लगती हैं ..किन्तु एक गंभीर सामाजिक संलाप की जड़ें वैज्ञानिक तथ्यों में होनी चाहियें.परियों की कहानियों में नहीं.

निष्कर्ष तो आपने बहुत उपयुक्त निकाले हैं किन्तु इलाज करने से पहले आपने यह नहीं देखा की मरीज़ बीमार है भी या नहीं.

आपका मित्र

Daisy ने कहा…

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PurpleMirchi ने कहा…

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